Thursday, December 31, 2009

दुश्मनों से भी दोस्ती रखिए

दुश्मनों से भी दोस्ती रखिये
तीरगी में भी रौशनी रखिये

जिंदगी कामयाब करनी हो
अपने होंठों पे बस हंसी रखिये

जिसके दिल में ज़रा भी हो एहसास
सामने उसके शायरी रखिये

बेरुखी से जो बात करते हों
दूर की उनसे बंदगी रखिये

हो बदलना जहाँ का चेहरा तो
जो मिले उसको बस सुखी रखिये

जो जवानी में हो गया बूढ़ा
सोच में उसके कमसिनी रखिये

जामे-उल्फत नहीं पिया जिसने
उसके होंठों पे तिशनगी रखिये

छा गयी हो जो दिल पे मायूसी
अपनी चेहरे पे कुछ हंसी रखिये

'सोज़' रहता हो बेवफा जिसमें
दूर अपने से वो गली रखिये

प्रोफेसर राम प्रकाश गोयल 'सोज़'
mob. 9412287787

तीरगी - अँधेरा
बंदगी - दुआ-सलाम
जामे-उल्फत - मोहब्बत का जाम
तिशनगी -प्यास

ग़ज़ल

ख्वाब महलों के हमने सजाये नहीं
फिर भी कुटियों के अधिकार पाये नहीं

इस जहाँ में वो दौलत है किस काम की
जो कि मुहताज के काम आये नहीं

जिन दरख्तों की छाया में सपने पले
उनको श्रद्धा के अक्षत चढ़ाये नहीं

कामयाबी का सूरज मिले न मिले
हमने आशा के दीपक बुझाये नहीं

ज़ुल्म से टूटकर हम बिखर तो गये
किन्तु अन्याय को सिर झुकाये नहीं

अपनी खुददारियों को सलामत रखा
आंख से अपनी आंसू गिराए नहीं

उनको सुख-शांति के फल कहाँ से मिलें
प्रेम के वृक्ष जिनने लगाये नहीं

आचार्य भगवत दुबे
mob. 09300613975

ग़ज़ल

मयख़ाने में जिनने हरदम पैमाने छलकाये हैं
उन्हीं अमीरों ने भूखों के मुंह के कौर छिनाये हैं

ठुकराया जाता है जिनकी चौखट पर खुद्दारों कों
नाक रगड़कर वही भटोंतों ने जयगान सुनाये हैं

बढ़ती मंहगाई ने हमको अब इतना लाचार किया
दीवाली की रातों में भी जल्दी दीप बुझाये हैं

इत्तफाक़ से कभी तुम्हारी चर्चा जब छिड जाती है
बेमौसम मेरी आँखों में तब सावन घिर आये हैं

भीतर-भीतर जाने कितने दर्द समेटे बैठे हैं
उनका मन रखने ऊपर से हम हरदम मुस्काये हैं

हर चुनाव में हमीं गरीबों को उनने आगे रक्खा
बना पोस्टर दीवारों पर हमीं गए चिपकाये हैं

बेटों को बाहर भेजा है इच्छा के विपरीत मगर
उनके जाते ही माँ ने टप-टप आंसू टपकाये हैं

आचार्य भगवत दुबे
mob. 9300613975

ग़ज़ल

बस परोसें वेदनाएं क्या हुआ मानव तुझे
मर रही है संवेदनाएं क्या हुआ मानव तुझे

फेक आया पहले ही आदर्श की गठरी कहीं
कोरी करी कल्पनाएँ क्या हुआ मानव तुझे

मांगता हर एक से ही भाग खुल जाते तिरे
द्वारे द्वारे याचनाएं क्या हुआ मानव तुझे

इस क्षणिक जीवन के प्रति लालसा में आ गया
लाखों पाले कामनाएं क्या हुआ मानव तुझे

ये है हिन्दू वो है मुस्लिम और कोई सिख ईसाई
ऐसी कुलषित भावनाएं क्या हुआ मानव तुझे

जन्म मानव का लिया है कार्य तेरे दानवी
आगे पीछे वासनाएं क्या हुआ मानव तुझे

द्वेष घृणा मर्म जीवन का यही क्या रह गया
ऐसी दूषित धारणाएं क्या हुआ मानव तुझे

था अहिंसा का पुजारी क्यों तू हिंसक बन गया
देता है बस तारणाएं क्या हुआ मानव तुझे

आया था आराधना को बन गया भगवान ख़ुद
होती पूजा अर्चनाएं क्या हुआ मानव तुझे

दीन दुखियों के य अब कोई काम आता है 'मुबीन'
बदली है सब धारणाएं क्या हुआ मानव तुझे

मुबीन अहमद सिद्दीक़ी 'कोंचवी'
mob. 09935382154

किसान

मेरा देश महान है
यह भारत का किसान है
खेत की तपती दुपहेरी में
करता निस दिन काम है
इसे कहाँ विश्राम है
मेरा देश महान है
अपनी मेहनत के बल पर
मिट्टी से सोना उपजाता
इसे कहाँ आराम है
यह भारत का किसान है
इसे गर्मी न सर्दी लगती
निष्काम भाव से करता अपना काम है
मातृभूमि की सेवा में अर्पित जीवन
इसे कहाँ विराम है
यह भारत का किसान है

भारत विजय बगैरिया
mob. 09893088467


Tuesday, December 29, 2009

सुख ही सुख और जिंदगानी में

सुख ही सुख और जिंदगानी में
जैसे कोई लकीर पानी में

सच ही बोलेगा जिंदगी में तू
अहद यह कर ले शादमानी में

जिनसे फूलों की थी उम्मीद हमें
उनसे पत्थर मिले निशानी में

तुम से आगाज़ था कहानी का
तुम ही अंजाम हो कहानी में

मेरा ही क्या बहक ही जाता है
अच्छे अच्छों का दिल जवानी है

प्यार करने से तो नहीं होता
प्यार होता है नागहानी में

नाम रुकना है मौत का यारो
जिंदगी तो है बस रवानी में

'सोज़' ख़ामोश रह के आया है
लुत्फ़ जीने का बेज़बानी में

प्रोफेसर राम प्रकाश गोयल 'सोज़'
mob. 09412287787

Monday, December 28, 2009

ग़ज़ल

तुम बिन सूना-सूना पनघट लगता है
तुम हो तो हर इक पल नटखट लगता है

तुम बिन तो जीवन है बनवास सरीखा
सूना-सूना हर इक जमघट लगता है

फूलों बिन गुलशन को वीराना कहेंगे
तुम बिन संसार नहीं मरघट लगता है

तेरे प्रेम समाया सागर सा मन में
रीता तुम बिन ये जीवन-घट लगता है

तुम हो प्राण-प्रतिष्ठा जग के मंदिर की
वर्ना ये निष्प्राण सजावट लगता है

अक्षय गोजा
mob. 09351289217

ग़ज़ल

बूंद में सागर मिलेगा कैसे
बूंद बिन सागर बनेगा कैसे

यूँ ही कुदरत ने नियम तोड़ दिए
कोई मौसम हो चलेगा कैसे

बात जमती ही नहीं अश्क़ बिना
दुःख ज़ुबां से वो कहेगा कैसे

अक्षय गोजा
mob. 09351289217

ग़ज़ल

वक़्त से क़ब्ल मर गया कोई
फूल बनकर बिखर गया कोई

नाम दुनिया में कर गया कोई
और बेनाम मर गया कोई

बेवफाई थी या कि मज़बूरी
वादा करके मुकर गया कोई

सबको मालूम है सबब इसका
क्यों इधर से उधर गया कोई

जैसे-जैसे चढ़ा शबाब का रंग
रफ्ता-रफ्ता संवर गया कोई

जिसकी दुनिया में सिर्फ खुशियाँ थीं
रंजो-ग़म में बिखर गया कोई

सिर्फ देखे की बस मुहब्बत है
वक़्त आया तो डर गया कोई

कैसे कुदरत का है निजाम ऐ 'सोज़'
किसको मरना था मर गया कोई

प्रोफेसर राम प्रकाश गोयल 'सोज़'
mob. 9412287787

कुछ था जो बहकता रहा

इस क्यों ? का उत्तर
न मिला कभी
जो चाह उसे छोड़कर
बाक़ी सब मिला
और जीवन के सब
निशान रहे
बस जीवन ही न रहा -
भटकता रहा
बिना मक़सद
होता रहा आवारा -
कहीं का न छोड़ा
इस आवारगी ने
किसकी चाह
किसकी प्यास, मीठा जल, खारा पानी
सब मिला
फिर कौन सी तड़फ
घुमाती रही उम्र भर
सब तो था
क्या न था
किससे कैसे कहे
क्या चाहिए
क्या न था -
अब मुझे
भी याद न रहा
कुछ था जो
बहकता रहा -

देवेन्द्र कुमार मिश्रा
mob. 9425405022

सभ्य की पहचान

मन में भाव हो न हो
हाथ सलामी के लिए
उठ जाता है
और होंठ फैल जाते हैं
ये अभ्यास है सतत
इसे व्यवहारिकता कहते हैं
कोई दुखी हो या सुखी
ये पूछना दुनियावी रस्म
कैसे हो ?
क्या हाल-चाल है
भले ही आदमी लंगड़ा हो
या फटीचर
कोई कुछ करते हुए भी
दिख रहा हो
तब भी पूछना पड़ता है
क्या कर रहे हो
सभ्य आदमी
के यही लक्षण हैं
जिसे सब बुरा
कहें उसे तुम भी कहो
जिसे सब अच्छा कहें
उसे तुम अच्छा कहो
भले ही तुम उसे
जानते भी न हो
और कभी मिले भी न हो
ये शरीफ सभ्य, सामाजिक
व्यक्ति की पहचान है

देवेन्द्र कुमार मिश्रा
mob. 9425405022

ग़ज़ल

निगाहे दोस्त भी दुश्मन है क्या किया जाये
ज़हन के पर्दे में उलझन है क्या किया जाये

मेरे नसीब में कांटे है गुल का नाम न दो
उलझ के रह गया दामन है क्या किया जाये

न पाई ग़म से अमां जीते जी कभी हमने
ये ज़िन्दगी ही अभागन है क्या किया जाये

ख़ुशी का नाम जो आया तो आंख भर आई
ज़माना समझा के सावन है क्या किया जाये

गले लगाना तो चाहा था ज़िन्दगी को मगर
कफ़न मेरा ये दुल्हन है क्या किया जाये

किनारा कर तो ले ये 'नियाज़' आज दुनिया से
किसी का हाँथ में दामन है क्या किया जाये

मोहम्मद नियाज़ महोब्वी
mob. 9839930243

Sunday, December 27, 2009

ग़ज़ल

खिलाओ फूल मुहब्बत के बागवां की तरह

चमन की करना हिफाज़त भी जिस्मो-जाँ की तरह



बहार आई है उसका तो एहतिराम करो

कहीं न उसको बना लेना तुम खिज़ाँ की तरह



कभी न सोचा था वो ज़ख्म देंगे यूँ गहरा

वुजूद ज़ख्म का अब भी है इक निशाँ की तरह



क़दम क़दम पे भटकते रहे वो दुनिया में

निभाया साथ है मैंने तो राज़दां की तरह



मुझे किया है मिरे दोस्तों ने यूँ रुसवा

सुलग रहा हूँ में जलते हुए मकाँ की तरह



ये चाहा मैंने कि मैं दोस्त बन सकूँ उनका

उन्होंने समझा मगर मुझको मेहरबां कि तरह



वो सोच सकते नहीं कितना प्यार है उनसे

वो 'सोज़' के तो लिए ख़ुद हैं इक जहाँ की तरह



प्रोफेसर राम प्रकाश गोयल 'सोज़'

ग़ज़ल

प्यार इन्सान की ज़रूरत है
प्यार से ये ज़मीन जन्नत है

प्यार ही ज़िंदगी की अज़मत है
जो सुकूँ है इसी बदौलत है

दूर है जिस्म रूह पास तेरे
ये मिरी जीस्त की हकीक़त है

मैं तो क़ायम हूँ आज भी सच पे
क्यों कि सच ही मिरी अक़ीदत है

किसने देखी है आज तक जन्नत
ये ज़मी ख़ुद ही एक जन्नत है

सिर्फ वो ही है कायनात मिरी
उनके होने से ही मसर्रत है

वो जो आया तो खिल उठा अरमाँ
दिल के गुलशन कि वो ही ज़ीनत है

मानता हूँ उन्हें ख़ुदा अपना
प्यार उनका मिरी इबादत है

झूंट तो 'सोज़' फ़साना है
और सच ज़ीस्त की हकीक़त है

प्रोफेसर राम प्रकाश गोयल 'सोज़'
mob.9412287787

ग़ज़ल

तुमको देखा जहाँ-जहाँ हमने
सर झुकाया वहां-वहां हमने

लग गयी आग सारी महफ़िल में
जब कहा तुमको अपनी जाँ हमने

साथ जबसे मिला हमें उनका
छोड़ा है अपना कारवां हमने

वो हमारे हैं बस हमारे हैं
पाल रक्खा है ये गुमाँ हमने

आंसुओं से भी की बयां अक्सर
प्यार की अपनी दास्ताँ हमने

उनको हम पर यकीं न आया कभी
दे दिए कितने इम्तहाँ हमने

बात पूजा की है तो फिर सबसे
बढ़के मानी है अपनी माँ हमने

अपनी नज़रें झुका ली हैं उसने
प्यार से जब कहा है हाँ हमने

'सोज़' उनका ही लब पे नाम आया
जब भी खोली है ये ज़ुबां हमने

प्रोफेसर राम प्रकाश गोयल 'सोज़'
mob. 9412287787

Saturday, December 26, 2009

ग़ज़ल

अगर सीने में मेरे दिल न होता
मुझे दुनिया में कुछ हासिल न होता

न होता प्यार का जज्बा जो यारो
भंवर होता कोई साहिल न होता

तुम ऐसे में न जाने कैसे लगते
तुम्हारे गाल पर गर तिल न होता

न करते वो जो मुझसे बेवफाई
मिरा ये दिल कभी बिस्मिल न होता

करम होता ख़ुदा का मुझ पे कैसे
गुनाहों में अगर शामिल न होता

हमारा प्यार भी परवान चढ़ता
अगर वो दोस्त ही बुज़दिल न होता

न होती उनकी गर मुझ पर इनायत
मिरा ऐसा तो मुस्तक़बिल न होता

हमारे क़त्ल की हिम्मत थी किस में
अगर वो दोस्त ही शामिल न होता

न लड़ते 'सोज़' जो तूफान से हम
हमारे सामने साहिल न होता

प्रोफेसर राम प्रकाश गोयल 'सोज़'
mob. - 09412287787

मुक्तक

अमल जो भी करेंगे हम , इसी पर फैसला होगा
सही क्या है , ग़लत क्या है , हमें यह सोचना होगा

भलाई गर किये हम कुछ , हमारा भी भला होगा
बुरा कुछ भी करेंगे तो , हमारा ही बुरा होगा

उबारा है उसे ख़ुद उसकी मेहनत और मशक्कत ने
कभी सोचो कि कितना वो , बियाबाँ में चला होगा

फरेबो - मक्र , खुदगर्ज़ी , हसद में सब यूँ गाफिल हैं
ख़ुदा जाने इबादत में कोई भी मुब्तिला होगा

अमीरों की ही सुनते हैं , अलम्बरदार धर्मों के
गरीबों का रहा शायद अलग कोई ख़ुदा होगा

निगाहे मेहरबां तेरी फरासत बनकर आनी है
न जाने आसमां सर पर मेरे कैसे सधा होगा

हमारी तंगदस्ती और ये दुनिया भर की नासाज़ी
'समीर' अपने मुक़द्दर में यही शायद लिखा होगा

पंडित मुकेश चतुर्वेदी 'समीर'
mob. 09926359533, 09301818437

ग़ज़ल

महकते फूलते फलते चमन गुलज़ार करते हैं
खिले गुलशन में रहने का सदा इक़रार करते हैं

मगर कुछ फूल ऐसे हैं तेरी दुनिया में ऐ मालिक
महक अपनी लुटाकर जो फिज़ा से प्यार करते हैं

चमकते आसमां पे हैं या धरती पर हैं रोशन भी
चमकना इनकी फितरत है चमक इज़हार करते हैं

बहुत से दीप तेरी खल्क में ऐसे भी जलते हैं
अँधेरे में रहें ख़ुद , रोशने संसार करते हें

जो दरियाओं पर बसते हैं जो साहिल हैं सफीनों के
किनारे पे पहुँचने का सदा इंतजार करते हैं

मगर दुनिया में ऐसे हैं बहुत से साहिले - आज़म
भले ख़ुद डूब जायें पर वो कश्ती पार करते हैं

इसी दुनियां में रहते हैं ख़ुशी से ऐश करते हैं
जो तूफानों से बचने को दरो - दीवार करते हैं

मगर ख्वाहिश ज़दा इन्सान कुछ ऐसे भी होते हैं
हंसीं देकर जो अश्क़ लेने का व्यापर करते हैं

प्रभा पांडे 'पुरनम'
ph - 0761 2412504

ग़ज़ल

मालोज़र और खज़ाना ज़रूरी नहीं
क़समे वादे निभाना ज़रूरी नहीं

सिर पे तेरी मुहब्बत का आकाश हो
सिर पे हो आशियाना ज़रूरी नहीं

तेरी आँखों में रोशन रहें बिजलियाँ
फिर तेरा मुस्कुराना ज़रूरी नहीं

रूह का रूह से सामना हो अगर
रुख़ से पर्दा हटाना ज़रूरी नहीं

मेरे हांथों में गर हाँथ तेरा रहे
साथ आये ज़माना ज़रूरी नहीं

फूल उल्फत के दिल में खिलते रहे
गुलसितां का फ़साना ज़रूरी नहीं

हार बाँहों के गर्दन पर लिपटे रहे
हीरे मोती चमकाना ज़रूरी नहीं

हवा डूबी हो चाहत की संगीत में
होंठ पर हो तराना ज़रूरी नहीं

एक दूजे पे मिटने की हसरत रहे
'पुरनम' को आज़माना ज़रूरी नहीं

प्रभा पांडे 'पुरनम'

ph 0761 2412504

ग़ज़ल

तसल्ली दिल को मिलती है कहाँ फरयाद करने से
खुदा की याद बेहतर है शिकव- ए-बेदाद करने से

है मुस्तकबिल में कुछ उम्मीद तस्किने दिलो-जां अब
हरा ज़ख्मे-जिगर होता है माजी याद करने से

मुसलसल ख्वाहिशों के सिलसिले हरगिज़ न कम होंगे
ज़रूरत कम नहीं होती कुछ इजाद करने से

यक़ीनन आस्मां से उन पे उतरेगा क़हर एक दिन
नहीं डरते गरीबों के जो घर बर्बाद करने से

किसी को ज़ख्म देने से पहले सोच ये लेना
सुकूं तू भी न पायेगा सितम सैय्याद करने से

अगर माँ-बाप की दिल में तेरे इज्ज़त नहीं 'नादाँ'
तेरे घर में तेरी इज्ज़त रही औलाद करने से

मलील अहमद 'नादाँ'

मुस्तक़बिल-पक्का, मुसलसल-बराबर, सैय्याद-शिकारी

Friday, December 25, 2009

ग़ज़ल

वही पत्ते वही कांटे वही डालियाँ मिली
जब अपने घर गया तो फ़क़त गालियाँ मिली

दोस्तों में मैं बड़े आराम से था दोस्त
रिश्तों में हर ओर मुझे जालियां मिली

पैसों की बात आई तो आयोजक मुकर गए
लोगों की सबसे ज़्यादा मुझको तालियाँ मिली

ख़्वाब तो नहीं देखा कल तुमने कोई 'पारस'
हरसू खिले थे फूल और हरयालियाँ मिली

डॉ रमेश कटारिया 'पारस'

ग़ज़ल

ग़म के काले साये तू दिल से उतार दे
वक़्त नहीं संवरता तो उनकी जुल्फें सवांर दे

जिंदगी के दिन तो बहरहाल गुज़र जायेंगे
हंस के गुज़ार तू इसे या रोकर गुज़ार दे

कुछ नहीं होगा नफरतें पालने से दोस्त
दुश्मन भी दोस्त बन जाये उसे इतना प्यार दे

घावों पे नमक डालने वाले हैं कई दोस्त
दे सके तो कोई एक ग़म गुसार दे

तू क़त्ल करके भी उसका साफ़ निकल सकता है
मारना है तुझे तो अपने अहं को मार दे

दोस्ती के नाम पर जो भी दग़ा करे
ऐसे दोस्तों को तू दिल से बिसार दे

जब तक जियो 'पारस' बड़े शान से जियो
ग़म सामने भी आये तो ठोकर से मार दे

डॉ रमेश कटारिया 'पारस'

ग़ज़ल

राज़ ये सबको सरेआम बताया जाये
मैं बुत परस्त हूँ किसी से न छुपाया जाये

आबे ज़म ज़म न सही सागर-ओ-मीना न सही
हम तो हैं रिंद हमें आँखों से पिलाया जाये

जो भी मयख़ाने में आया है तलबगार है वो जाम
भर-भर के उसे खूब पिलाया जाये

खुशियाँ मेहमान हिया दो दिन में चली जायेंगी
ग़म तो अपना है इसे सीने से लगाया जाये

धर्म के नाम पे मज़हब के बहाने से कभी
खून मासूमों का न अब और बहाया जाये

ग़म को सहते रहे हसते रहे जीते भी रहे
राज़ ये दोस्तों को हरगिज़ न बताया जाये

हाल ए दिल हँसते हुए भी तो हो सकता है बयां
क्या ज़रूरी है कि रो-रो के सुनाया जाए

डॉ रमेश कटारिया 'परस'

ग़ज़ल

जिंदगी दांव पर लगाते हैं
दोष तक़दीर का बताते हैं

रोक पाओ तो रोक लो आंसू
हम तुम्हें हाल-ए दिल सुनते हैं

शाम होती है रोज़ ठेके पर
जाम से जाम खन खनाते हैं

जिंदगी रोते-रोते गुज़री है
लोग क्यों कुंडली मिलते हैं

हमारी तिशनगी का हाल मत पूंछो
प्यासे आये थे प्यासे जाते हैं

मेयक़दा उनका ख़ास है ऐसे
वो फ़क़त आँख से पिलाते हैं

दिल को रख दूंगा उनके क़दमों में
देखें कैसे कुचल के जाते हैं

दिल हमारा कांच से भी नाज़ुक है
आप क्यूँ बिजलियाँ गिरते हैं

डॉ रमेश कटारिया 'पारस'

Thursday, December 24, 2009

ग़ज़ल

जब से गया है छोड़के ये दिल उदास है

ऐसा भी लग रहा है के तू आस पास है

तुझ से बिछड़ से आज भी तन्हा नहीं हूँ मैं

खुशबु तेरे बदन की अभी मेरे पास है

तुम क्या गये के रूठ गयी हम से हर ख़ुशी

पैमाने ख़ाली हाँथ में ख़ाली गिलास है

आँखें खुली रहीं मेरी मरने के बाद भी

आँखों को मेरी आपके आने की आस है

आजा तू मेरे प्यार की चादर को ओढ़ कर

दीवाना तेरा तेरे लिए बदहवास है

जिसने भी तुझ को देखा वो तेरा ही हो गया

न जाने तेरे हुस्न में क्या खास बात है

मायूसियाँ 'नियाज़' के चेहरे की देखकर

ये गुल उदास चाँद सितारे उदास है

मोहम्मद नियाज़ महोब्वी

Sunday, November 15, 2009

ग़ज़ल

न ये ज़मीन तेरी है न आसमां तेरा है
दरो दीवार भी नहीं नहीं मकां तेरा है

निकल गया जो हाथ से वो कहाँ पाओगे
न तो वो वक़्त तेरा है नहीं समां तेरा है

नहीं देगी ये साथ महकी हुई ठंडी सबा
नहीं ये गुल तेरे ना ही गुलिस्ताँ तेरा

जो कर सके हर किसी की भलाई तेरी
फ़क़त इंसानियत तेरी, और इमां तेरा

प्रभा पाण्डे 'पुरनम'

Tuesday, November 10, 2009

साक्षरता

लड़का पढ़ रहे, लड़की पढ़ रही
पढ़ रहे कक्का भइया
हम सबको है साक्षर होने
तभी चलेगी नैया
शासन हमको खूब पढ़ा रही
लाभ भी हमको खूब पहुँचा रही
किताबें, कापी, पेन, पेंसिल
मुफ्त में मिल रहे भइया
पढ़ लो कक्का भइया
बच्चों को पढाएं, लिखायें
और होशियार बनाएं
जिससे वो अपनों उज्जवल
भविष्य बनाएं
अब तो वो तैयार हो गयी
बा रमुआ की मैया
पढ़ लो कक्का भइया

भारत विजय बगेरिया

Saturday, November 7, 2009

चौकस जो वतन की अब रखवाली नही होगी

चौकस जो वतन की अब रखवाली नही होगी
किसी भी काम की बेशक, ये खुशहाली नहीं होगी

गुज़र जायेंगे दुनिया से, तो बेहतर चैन पायेंगे
मुई तक़दीर इतनी तो, वहां काली नहीं होगी

मुझे ससुराल में अपनी, नहीं कुछ लुत्फ मिलता है
पता न था कुंवारे को, उधर साली नहीं मिलती

हमेशा ही उंडेली है, हलक़ में हमने बोतल से
हमारे हाथ में बंधु , दिखी प्याली नहीं होगी

मुझे उन रश्क़-परियों की, दुआओं ने बचाया है
नज़र शायद कभी मैली, जहाँ डाली नहीं होगी

'समीर' सब उम्दा हम्दों को, ख़ुदा पर नज़र करता है
यकीनन वाह या कोई, कहीं ताली नहीं होगी

पंडित मुकेश चतुर्वेदी 'समीर'

अमल जो भी करेंगे हम

अमल जो भी करेंगे हम, इसी पर फ़ैसला होगा
सही क्या है ग़लत क्या है, हमें यह सोचना होगा

भलाई गर किये हम कुछ, हमारा भी भला होगा
बुरा कुछ भी करेंगे तो, हमारा ही बुरा होगा

उबारा है उसे ख़ुद की, मेहनत और मशक्कत ने
कभी सोचो कि कितना वो, बियाबां में चला होगा

फरेबो-मक्र, खुदगर्जी, हसद में सब यूँ गाफिल हैं
ख़ुदा जाने इबादत में, रहा कोई मुब्तिला होगा

अमीरों कि ही सुनते हैं, अलम्बरदार धर्मों के
गरीबों का रहा शायद, अलग कोई ख़ुदा होगा

निगाहे-परवरिश तेरी, फिरासत बनकर आनी है
न जाने आसमां सर पर, मेरे कैसे साधा होगा

हमारी तंगदस्ती और ये दुनिया भर की नासाज़ी
'समीर' ये पिछले जन्मों का, मुसलसल सिलसिला होगा

पंडित मुकेश चतुर्वेदी 'समीर'

Tuesday, November 3, 2009

बिन तुम्हारे बसर किया हमने

बिन तुम्हारे बसर किया हमने
यूँ भी तन्हा सफर किया हमने

तुमने जीती है सल्तनत लेकिन
दिल मैं लोगों के घर किया हमने

आज के दौर मैं वफ़ा करके
अपने दामन को तर किया हमने

वजह उस पे यकीं की मत पूंछो
न था करना मगर किया हमने

वो उठाते हैं उँगलियाँ हम पर
जिनमें पैदा हुनर किया हमने

उनकी यादों के जाम पी पी के
दर्द को बेअसर किया हमने

जानता हूँ की बेवफा है वो
साथ फिर भी गुज़र किया हमने

जब भी दुनिया पे ऐतबार किया
ख़ुद को ही डर दर बदर किया हमने

दोस्ती में मिटा के ख़ुद को 'सोज़'
दोस्ती को अमर किया हमने

राम प्रकाश गोयल 'सोज़'

Wednesday, October 28, 2009

ग़ज़ल

जिंदगी हमने कहा कहते हैं मेरा नाम है
मेरे सुखन के नाम पे अच्छा भला इल्ज़ाम है

अच्छे बुरे लेकिन सभी गिरते हैं तेरी बज़्म में
गिरते हुओं को थामले ऐसा भी कोई जाम है

दिखते कहीं हैं खार तो कर दे वो मेरी राह में
खुशियाँ तेरे दामन में हैं ग़म से तुझे क्या काम है

गैर को दी हर खुशी लेकिन हमें बस ज़ख्मेदिल
चारों तरफ़ ये गुफ्तगू हर सुबह हर शाम है

तरकीब हमने की बहुत पर बात आगे न बढ़ी
तेरा इश्क भी रुसवा हुआ मेरी चाह भी बदनाम है

महफिले दुनिया में बस एक आप ही तो खास थे
वरना जहाँ का हर नज़ारा बेवजह है आम है

ग़म दे मुझे या दे खुशी दिल दे रहा फिर भी दुआ
तेरे सभी सितम लगे 'पुरनम' को बस कलम है

प्रभा पांडे 'पुरनम'

Saturday, June 27, 2009

ग़ज़ल

दिल की याद आई मुझे और न जिगर याद आया
हाँ मगर आप का बस तीरे नज़र याद आया

वक़्ते रुखसत वो निगाहें न मिलाना उनका
उम्र भर हाय यह अंदाज़े सफ़र याद आया


जिस जगह उसने कहा तेरा खुदा हाफिज़ है
जिंदगी भर मुझे हर लम्हा वो दर याद आया

चाँद की जब भी शबे ग़म में शुआऐं बिखरीं
और भी अपना मुझे रश्के क़मर याद आया

उफ़ ये रंगीनियाँ बाजारे जहाँ की तौबा
लुट गया जो भी यहाँ फिर उसे घर
याद आया

मेरी वहशत यह नहीं और तो फिर क्या है "उरूज"
जब भी पत्थर कोई देखा मुझे सर याद आया

उरूज "झांसवी'

गुल - फूल
सहर - सुबह का समय
शुआऐं - किरने
रश्क़े क़मर - माशूक से मुराद है वहशत - जंगलीपन
शबे ग़म - ग़मों की रात
उफ़ - तौबा

Friday, June 26, 2009

ग़ज़ल

देखिए एक जिंदगी के वास्ते
ग़म हैं कितने आदमी के वास्ते

हैंबहुत ही कम वह इंसा आजकल
जान दे दें जो किसी के वास्ते

दिल किसी का भी न तोड़ो दोस्तों
अपनी एक अदना ख़ुशी के वास्ते

तंज़ करते हैं वही अब देखिए
हम मिटे जिनकी ख़ुशी के वास्ते

मौत का चखना है सब को ज़ायका
मौत बरहक़ है सभी के वास्ते

कर गुज़रते हैं न क्या क्या हम"उरूज"
चार दिन की जिंदगी के वास्ते


उरूज "झांसवी"


अदना - छोटी
जायेका - स्वाद
बरहक़ - अति आवश्यक

Wednesday, June 24, 2009

ग़ज़ल

जब संवर के ग़ज़ल निकलती है
आरज़ू अपने हाँथ मलती है

जब कोई होती है तसव्वर में
जिंदगी करवटें बदलती है

चलता रहता है करवानें हयात
सुबह होती है शाम होती है

खून पतंगों का होता है नाहक
शम्मा जब भी कहीं पे जलती है

पिछली व् नौ जवानी व् पीरी
जिंदगी कितने घर बदलती है

जब सितम ढाता है कोई अपना
दिल पे तलवार ग़म की चलती है

आतिशे फिक्र से गुज़रती है
शेर की तब किरण निकलती है

उनकी फुरक़त में मुद्दतों से मेरी
चश्म ग़म के लहू उगलती है

याद उस शौख नाज़मी की "गुलाम"
सहने दिल में सदा टहलती है


गुलाम रसूल अंसारी

Friday, June 5, 2009

कौमी तराना

क़ायम रखेंगे हम सदा भारत की शान को
झुकने न देंगे परचमे हिन्दोस्तान को

भारत पे भूल कर भी जो डालेगा बदनज़र
महफूज़ रख ना पायेगा वह अपनी जान को

सुलतान, टीपू और महारानी लक्ष्मी
सद आफरी है भारती हर इक जवान को

बरसा के गोले देखिये अब्दुल हमीद ने
टिकने दिया ना दुश्मने हिन्दोस्तान को

भारत पे मिटने वाले शहीदों तुम्हें सलाम
तुमने वतन की शान रखी दे के जान को

गुरवानी पढता है तो कोई बाइबिल यहाँ
गीता कोई पढता है तो कोई कुरान को

आओ हम आज मिल के करें यह एहद "उरूज"
रक्खेगें हिंद में सदा अमनो अमान को

उरूज झांसवी

परचमे - झंडा
महफूज़ - सुरक्षित
सद आफरी - सैंकडों बार प्रशंसा के योग्य
सद - सौ
आफरी - शाबाशी देना
एहद - प्रण
अम्नो अमान - शांति

Thursday, May 28, 2009

ग़ज़ल

तुम आओ या न आओ तुम ख्वाबों में तो आते हो
रकीबों संग हंसते हो हमारा दिल दुखाते हो 

हमें मालूम है हम ही तुम्हारे दिल में बसते हैं 
न जाने फिर मेरी जाँ क्यों नज़र हम से चुराते हो 

तुम्हें डर है ज़माने का ज़माने से डरो हमदम  
है दरिया आग का कह कर हमें क्यों तुम डराते हो  

ज़माना सब ज़माना है हमारे प्यार का दुश्मन  
सुनो कह दो ज़माने से हमें क्या आज़माते हो  

तुम्ही ने हम से वादा ले लिया था बावफा रहना  
नसीहत कर के हमको खुद नसीहत भूल जाते हो  

जवां चाहत रहेगी उम्र भर करना यकीं "मज़हर" 
जवानी और बुढापा क्या है क्यों ऊँगली उठाते हो  

मज़हर अली "क़ासमी"

Saturday, May 16, 2009

क्योंकि धूप बहुत पड़ती है

क्योंकि धूप बहुत पड़ती है
मीत नहीं सबको मिलता है
इसीलिए हर दोपहरी में 
आंसू ही छाया करता है 
जब जीवन का एकाकी-पन
और नहीं आगे सह पाया  
मन ने कहा प्यार करता हूँ  
तन ने कहा बहुत चल आया  
चलना भी छाया के पीछे  
सत्य रहा जाना अंजना  
और हुई जब शाम अचानक  
तब मैंने जीवन पहचाना  
प्यार नहीं छलता जीवन को  
यह तो प्यार छला करता है  
इसीलिए हर दोपहरी में 
आंसू ही छाया करता है 
जब मन में कोई उलझन हो 
दिन सूना सूना लगता हो 
और काफिलों की गर्दिश में 
छोटा गाँव धुआं लगता हो 
तब अपनी पीडा पखारने को  
अपनी पलकें फैलाना  
और पलक के गिरे नीर से 
तन की तनिक तपन सहलाना  
सिन्धु नहीं भरता है जिसको 
सीकर उसे भरा करता है  
इसीलिए हर दोपहरी में 
आंसू ही छाया करता है

मेघराज सिंह कुशवाहा

Sunday, April 26, 2009

ग़ज़ल

कितनी हँसी है रात मेरे साथ आइये
करनी है दिल की बात मेरे साथ आइये

आगाज़े गुफ्तगू तो ज़रा कीजिये हुज़ूर
बातों से निकले बात मेरे साथ आइये

लफ्जों ने साथ छोड़ दिया है ज़ुबान का
नज़रों से कीजिये बात मेरे साथ आइये

लम्हा बगैर आप के लगता है एक साल
कटती नहीं हयात मेरे साथ आइये

ताउम्र साथ दोगे यकीं तो नहीं मगर
कुछ दूर की है बात मेरे साथ आइये

ठुकरा दिया है इश्क में सब कुछ यहाँ 'नसीम'
दुनिया की क्या बिसात मेरे साथ आइये

नसीम टीकमगढी

ग़ज़ल

पत्थर समझ के सबने जो ठुकरा दिया मुझे
उसने लगाया हाथ तो चमका दिया मुझे

आवाज़े हक़ उठाई तो ख़ामोश कर दिया
यूँ मेरे एहतिजाज़ का तोहफा दिया मुझे

छेडी थी मैंने जंग तो रोटी के वास्ते
बातों से उस बाखिल ने बहला किया मुझे

असली नहीं चलेगा सियासत में इस लिए
चेहरे पे इक लगाने को चेहरा दिया मुझे

मुझको बहुत गुरूर था ख़ुद पर यकीं करो
आईना फिर भी वक़्त ने दिखला दिया मुझे

शायद मेरे क़रीब में कोई खड़ा तो है
पत्तों ने सरसरा के ये बतला दिया मुझे

उल्फत है न खुलूस न दीवानगी की हद
घर उसने अपने दिल में ये कैसा दिया मुझे

मेरी ख्वाहिशातने नादिम किया 'नसीम'
कैसे सम्भालूं उसने तो इतना दिया मुझे

नसीम टीकमगढी

इन अधरों के 'भोजपत्र' पर

दूँ क्या ? मैं प्रतिफल में तुमको
बतलाओ मनमीत
इन अधरों के 'भोजपत्र' पर
ग़ज़ल लिखूं या गीत.............

केसरिया अंगों पर मेरे,
लिखे प्रणय के शलोक

संयम का हिमगिरी पिघला है
आज पिया मत रोक
लिखी जायेगी शिलापटल पर
तेरी मेरी प्रीत ....................

बाहें मेरी यमक हो गईं
सांसें सब अनुप्रास
बुझ पायेगी क्या एक पल में
जनम जनम की प्यास
साहस का ध्वज लिए रहे तो
होगी अपनी जीत...............

चुम्बन का गुदना अंगों पर
सुधियों का चंदन है
तन में है यमुना की लहरें
मन यह वृन्दावन है
तन की मटकी मन की मथनी
प्यार हुआ नवनीत ...........

उमाश्री

हो गई देश भक्ति उसी दिन....

हो गई देश भक्ति उसी दिन नगन
जब तिरंगे का बगुलों पे डाला कफ़न

दब गए चरखा तकली घोटालों तले
पहले जैसा नहीं बापू तेरा वतन

शान्ति-सुख के पुजारी जो कहलाते थे
पांच दशकों में वो ला न पाये अमन

'स्वर्ण तिथियों' पे दारू की नदियाँ बहीं
अफसराओं सा नाचा घोटालों का धन

जाहिलों को अगर चुनके लाओगे तुम
रो के कहती है धरती बिकेगा गगन

मिलके नेता सभी एक दिन देखना
पहले ईमान फिर बेच देंगे वतन

उनकी आंखों में रहती है नफरत 'उमा'
जिनका होता नहीं है मुहब्बत का मन

उमाश्री

अमनोसुकुं न ख़त्म हो हिन्दोस्तान से

अमनोसुकुं न ख़त्म हो हिन्दोस्तान से
आवाज़ आ रही है ये शंखो अज़ान से

इंसाफ बिक रहा है अदालत की मेज़ पर
फाँसी लगी है सत्य को झूंठे बयान से

वादे किए थे तुमने इलेक्शन में शान से
कर्जे हुए हैं माफ़ क्या पूंछो किसान से

रथ यात्रा जो राम की लेकर चले थे तुम
हासिल हुआ है देश को क्या इस निशान से

दीवानगी पे उनकी हँसी आ गई 'उमा'
उल्फत मिटाने आए थे तीरो-कमान से

उमाश्री

झूंठी रस्मों के तोड़कर ताले

झूंठी रस्मों के तोड़कर ताले
आ भी जा मुझको चाहने वाले

हमने जितने भी ख़्वाब देखे थे
किसने आंखों में क़त्ल कर डाले

कौन बनवा सकेगा ताजमहल
अब कहाँ ऐसे चाहने वाले

बुलबुले ही नहीं हैं पानी पर
ये हैं दरिया के जिस्म पर छाले

हर तरफ़ झूंठ की हुकूमत है
सच के होंठों पे लग गए ताले

अब तो उनको ही डस रहे हैं 'उमा'
जिन सपेरों ने सांप थे पाले

उमाश्री

Saturday, April 25, 2009

हम दिल के हांथों

हम दिल के हांथों ऐसे मजबूर हो गये
हम ख़ुद से दूर दूर बहुत दूर हो गये

ना दिन का चैन है, न रातों में है क़रार
ना ज़िन्दगी से प्यार है, सांसों से नहीं प्यार
इस तरह कोई कैसे गुज़ारे तमाम उम्र
जब ज़िंदगी ही ख़ुद से हो जाये है बेज़ार

ढ़ो-ढ़ो के ज़िंदगी को चूर-चूर हो गए

हम ख़ुद से दूर...................................

किस किस ने खेला दिल से कैसे बताएं हम
इस ग़म के साज़ उसको, कैसे सुनाये हम
ज़ख्मी है दिल को चीर के कैसे दिखाएं हम
इक ज़ख्म हो तो ठीक है, कितने गिनाए हम
वो ज़ख्म पुराने अब, नासूर हो गये

हम ख़ुद से दूर...................................

न ख़त्म होने वाला, अब इंतजार है
वो जानते है बेहद हमें उनसे प्यार है
तन्हाइयां तक़दीर में लिख दी नसीब ने
करता है ज़ुल्म और न वो शर्मसार है
गैरों को छोडिये अपने ही काफूर हो गये

हम ख़ुद से दूर...................................

हम दिल के हांथों ऐसे मजबूर हो गये
हम ख़ुद से दूर दूर बहुत दूर हो गये

मज़हर अली 'क़ासमी'

बिछड़ के आपसे हमको

बिछड़ के आपसे हमको बड़ा एहसास होता है
जिया इस ज़िन्दगी को सोच के ये दिल भी रोता है

तुम्हारे बिन धड़कने को मन करता है मेरा दिल
मेरा दिल शाम सुबह ये दुआ करता है आ के मिल
जो मिल जाओ तो कुछ ज़िन्दगी की आस बंध जाये
नहीं तो रेत मुट्ठी से न जाने कब फिसल जाये
ये दीवाने की क़िस्मत है, जो हंस कर चैन खोता है

जिया इस ज़िन्दगी ......................

तुम्हारे बिन नहीं है चैन, ना दिल को है क़रार आता
ये दिल जो पास में होता, तो दर पे न बीमार आता
मेरे आंसू मेरी फरयाद, कोई काम ना आई
वो संग दिल है ना माना, मैंने दी लाख दुहाई
ख़ुदा से मांगता मिलता ना मांगो कुछ न मिलता ही

जिया इस ज़िन्दगी ......................

अजब ही प्यास इस दिल की नज़र आये तो बुझती है
नहीं मिलता है जब महबूब, शोलों सी भड़कती है
ये दिल भी है बड़ा नादाँ, इसे समझाऊँ मैं कैसे
वफादारी नहीं फितरत, उसे बतलाऊँ मैं कैसे
मेरा दिल भोला-भाला सीदा साधा मुझे महसूस होता है

जिया इस ज़िन्दगी ......................

बिछड़ के आपसे हमको बड़ा एहसास होता है
जिया इस ज़िन्दगी को सोच के ये दिल भी रोता है

मज़हर अली 'क़ासमी'

कैसे तुम को भुला सकेंगे

कैसे तुम को भुला सकेंगे, तुम तो कितने प्यारे हो
पल-पल मेरा दिल कहता है, उससे तुम दिल हारे हो

तेरे नज़र के तीर से घायल, मैं आशिक आवारा हूँ
दर्द छिपाए फिरता है जो, घायल वो बेचारा हूँ
कभी मैं रोता, कभी हूँ हँसता, कभी भटकता राहों में
कभी असर तो आयेगा, दर्द भरी इन आहों में
मेरा कोई नहीं दुनियाँ में, तुम ही एक सहारे हो

पल-पल मेरा दिल कहता है...............................

इश्क में ऐसी हालत होगी, मुझको ये मालूम न था
जितना मैं मजबूर हूँ उतना, मजनूं भी मजबूर न था
तेरे दीद की खातिर भटकूँ, दर-दर ठोकर खाता हूँ
मुझ को तेरी चाहत कितनी, तुझ को आज बताता हूँ
हम तो तेरे जन्म से हैं और माना तुम हमारे हो

पल-पल मेरा दिल कहता है........................

नज़रों को भाता है कोई, इश्क की लौ लग जाती है
जितना बुझाओ बुझे नहीं, वो और भड़कती जाती है
तेरे प्यार में डूब गया हूँ , बचना बहुत मुहाल है
ख़स्ता हाल है कश्ती मेरी, हिम्मत भी बेहाल है
मैं फंसा हूँ बीच भंवर में तुम पहुंचे एक किनारे हो

पल मेरा दिल कहता है..............................

कैसे तुम को भुला सकेंगे, तुम तो कितने प्यारे हो
पल-पल मेरा दिल कहता है, उससे तुम दिल हारे हो


मज़हर अली 'क़ासमी'

धार्मिक बंधन

एक स्थानीय पत्रिका में एक रचना
जब हमने छपने हेतु भिजवाई
तो हमारी रचना संपादक जी की
इस खेदात्मक टिप्पणी के साथ वापस आई
की अग्रवाल जी आपकी रचना
महाभारत के पात्रों के प्रतिकूल है
इसलिए हम अभी आपकी रचना
छापने में स्वंम को पा रहे मजबूर हेइम
हमें आपकी रचना छापकर
किसी प्रकार की कोई जोखिम नहीं उठानी है
क्योंकि पत्रिका अभी हमें
काफी लंबे समय तक चलानी है
आपने देखा नहीं भाई साहब
जब 'रामसेतु' मुद्दा सदन में गर्माया था
तो विपक्ष वालों ने इस मुद्दे पर
कैसा हंगामा मचाया था
और हम तो सहायता राशि के लिए भी
धार्मिक संस्थाओं का ही मुंह तकते हैं
ऐसी स्थिति में भला धर्म के प्रति
कोई खतरा, हम कैसे उठा सकते हैं
'ढपोरशंख' जी आप कविता की विषय-वस्तु
आधुनिक रूप में अपनाइये
और आप हमें किसी सामाजिक
संगति पर कविता भिजवाइये
जिसमें किसी सरकारी कार्य की प्रशंसा हो
नेताजी के दिल में आम जन के भावों की मंशा हो
मंत्री जी के मन में जन कल्याण का भाव हो
पुलिस के कार्यों में अत्याचार का अभाव हो
सरकारी अस्पतालों में मरीज़ के इलाज की
की गयी हो समुचित व्यवस्था
धर्म के ठेकेदारों की भी जागी हो
धर्म के प्रति पूर्ण आस्था
गर आप हमें ऐसे किसी विषय पर
अपनी कविता भिजवायेंगे
तो हम अवश्य ऐसी रचना पर
सच्चे मन से गौर फरमाएंगे
और आपकी रचना को
स्थान भी अवश्य प्रदान कर पायेंगे
और यथा सम्भव आपको
हम पारिश्रमिक भी भिजवायेंगे
मेरी समझ में आ गई, हरीश तुझे अगर छपना है
तो कविता में झूठी प्रशंसा का भाव लाओ
और देश में खादी के गिरते चरित्र पर
भूल कर भी ऊँगली मत उठाओ
मारकर अपनी आत्मा को
तन,मन को भोग के रस में डुबाओ
सत्य को मत करो उजागर
न असलियत का आइना किसी को दिखाओ

हरीश अग्रवाल 'ढपोरशंख'

Friday, April 24, 2009

ग़ज़ल

जिधर भी देखो फसादों शर है कहीं भी अमनो अमाँ नहीं है
करोड़ों जनता है भूंखी प्यासी मयस्सर उनको मकाँ नहीं है

ये कैसे कैसे सुनहरे सपने दिखा रहे हो युगों से हमको
किसानों मेहनतकशों को देखो कोई भी तो शादमां नहीं है

ये नन्हें बच्चे जो सूखे टुकड़े तलाशते है गली-गली में
ना बाप इनका, ना माँ है इनकी कोई भी अब महरबां नहीं है

न कोई साथी न कोई मोहसिन न कोई मोनिस न कोई हमदम
जिधर भी देखो है जाँ के दुश्मन कोई भी तो महरबां नहीं है

हबीब मेरे रकीब मेरे न जाने क्यों बदगुमाँ हैं मुझसे
बला से हो जाए बदगुमाँ सब है शुक्र वो बदगुमाँ नहीं है

हो कोई ऐसा अगर नज़र में तो मेरे हमदम मुझे बताना
वो वाकई खुशनसीब होगा जो आज कल सर्गारान् नहीं है

'क़मर' से नालां हैं गुन्चाओ गुल है बगवां भी ख़फा-ख़फा सा
है तंग उस पर ज़मीन उस पर ये शुक्र के आसमां नहीं है

मोहम्मद सिद्दीक 'क़मर'