Wednesday, February 11, 2009

अब उजाले अंधेरों से डरने लगे

अब उजाले अंधेरों से डरने लगे
देखकर दूर से ही गुज़रने लगे


ज़ुल्म की बस्तियां बस रहीं रात-दिन
प्यार के गाँव दिन-दिन उजड़ने लगे

हसरतों के गले फासियों पर चढ़े
दिल के अरमान बेमौत मरने लगे

अब तो मौसम भी हांथों में पत्थर लिए
पागलों की तरह चोट करने लगे

जिन परिंदों को पाला बड़े प्यार से
लोग उनके ही पंखे कतरने लगे

घाव भरने 'शिवा' जब दवा न मिली
और करते भी क्या आह भरने लगे

डॉ० शिवाजी चौहान ' शिवा '

Tuesday, February 10, 2009

जल संरक्षण

पानी की बर्बादी रोको पानी बहुत अमूल्य है
न रोकोगे बर्बादी तो बड़ी तुम्हारी भूल है

पानी जीवन इस धरती का, पानी बिन सब सूखा है
पानी से हरयाली है, पानी जीवन रेखा है
पानी गर कुछ बचा लिया, समझो सब कुछ कूल है

न रोकोगे बर्बादी तो बड़ी तुम्हारी भूल है

दो-दो- कोस से आज भी पानी लाते है कुछ गाँव में
हम खुश किस्मत हैं जो पानी बैठे मिलता छांव में
उनसे पूंछो दर्द ज़रा, जब पाँव में चुभता शूल है

न रोकोगे बर्बादी तो बड़ी तुम्हारी भूल है

पानी बिन हलधर बैठे, पानी बिन नहीं रूपता बीज
बिन पानी पैदा हो जाए, नहीं है ऐसी कोई चीज़
पानी बिन खेती क्या हो, खेतों में उड़ती धूल है

न रोकोगे बर्बादी तो बड़ी तुम्हारी भूल है

पानी की बर्बादी रोको पानी बहुत अमूल्य है
न रोकोगे बर्बादी तो बड़ी तुम्हारी भूल है

मज़हर अली 'क़ासमी'

पृथ्वी हो रही विकल

ख़त्म होती वृक्षों की दुनियाँ
पक्षी कहाँ पर वास करें
किससे अपना दुखड़ा रोएं
किससे वो सवाल करें

कंक्रीटों की इस दुनियाँ में
तपिश सहना भी हुआ मुश्किल
मानवता के अस्थि-पंजर टूटे
पृथ्वी नित् हो रही विकल

सिर्फ़ पर्यावरण के नारों से
धरती पर होता चहुओर शोर
कैसे बचे धरती का जीवन
नहीं सोचता कोई इसकी ओर

आकांक्षा यादव
प्रेम और विश्वास के बीच
जब भी दरार पड़ जाती है
मन-मस्तिष्क की दुनियाँ में
बड़ी उथल-पुथल मच जाती है

रिश्तों को जोड़ना तो आसान
पर उनको निभाना कठिन
सीमा के अन्दर न रहने से
हर बात बिगड़ जाती है

अपने पराए तो पराए अपने
बनते चले जाते हैं
पर मिटाई नहीं जाती वो तस्वीर
जो दिल में बस जाती है

सभी कश्तियाँ चाहने पर भी
साहिल पे नहीं लग पातीं
न हो जिसमें पतवार-मांझी
वो मझधार में डूब जाती है

शक का बीज बोकर जो लोग
तमाशा देखते हैं
वो क्या जाने किसी की जिंदगी
कितनी बोझ बन जाती है

प्रेम और विश्वास के बीच
जब भी दरार पड़ जाती है


सुधीर खरे ' कमल '

इस बसंत के मौसम ने

इस बसंत के मौसम ने
तन मन में आग लगाई है
साल सोलवां बता रहा
ऋतु मिलन अब आई है

पायल की छन-छन अब मुझको
अपने पास बुलाती है
एक झलक उस गौरी की
बेचेंन मुझे कर जाती है
ऋतु बसंत की दस्तक ने
हलचल सी एक मचाई है

साल सोलवां बता रहा
ऋतु मिलन अब आई है

कभी धूप में तेज़ी आती
कभी घटा छा जाती है
बिन मौसम बरसात कभी
फसल तबाह कर जाती है
घबरा जाते सभी कृषक
करते वो राम-दुहाई है

साल सोलवां बता रहा
ऋतु मिलन अब आई है

हर सिम्त से खुशबु आती है
महकती है तन-मन मेरा
बांधे न बंधे तन-मन ये
कुछ काम ना आये जतन मेरा
गिन-गिन के तारे जाग-जाग
मैंने आस में रात बिताई है

साल सोलवां बता रहा
ऋतु मिलन अब आई है

सिम्त - दिशा

मज़हर अली ' कासमी '
नागफनी से दिल चेहरे गुलदस्ते हैं
कुछ ऐसे भी लोग यहाँ पर बसते हैं

बिक जाते हैं बस थोड़े से पैसों में
लोगों के ईमान भी कितने सस्ते हैं

माँ बिछड़ी तो समझे ममता की क़ीमत
माँ की ममता को हम आज तरसते हैं

साँपों को ऐसे डसने का इल्म कहाँ
जैसे इंसानों को इंसा डसते हैं

ये कैसा सच बोल रहा है तू मुझसे
क्यूँ अल्फाज़ गले में तेरे फंसते हैं

मुफलिस को सावन से क्या मतलब 'शारिब'
उसके घर तो सावन रोज़ बरसते हैं

अल्फाज़ - शब्द
मुफलिस - ग़रीब

अब्दुल जब्बर 'शारिब'

Monday, February 9, 2009

जो फैली मज़हबी नफरत मिटानें कौन आयेगा

जो फैली मज़हबी नफरत मिटानें कौन आयेगा
सभी बन्दे हैं एक रब के बताने कौन आयेगा

अगर हम आपसी झगडे मिटा कर एक हो जायें
हमारे मुल्क में फिर बम चलने कौन आयेगा

पहन ले मुल्क में खादी अगर आतंकवादी भी
तो फिर ये आग नफरत की बुझाने कौन आयेगा

कफ़न ताबूत भी जब सरहदों पे बेचे जायेंगे
तो फिर उन सरहदों पे जाँ लुटाने कौन आयेगा

जो है हिंदू मुस्लमा वो अगर इन्सान हो जायें
बता फिर उनकी बस्ती को जलाने कौन आयेगा

गिराना बस्तियों पर बम बहुत आसान होता है
अगर मिट जायेंगे ये घर बनाने कौन आयेगा

तू ही 'रहबर' तू ही रहज़न तू ही आतंकवादी है
तुझी को तेरी करतूतें बताने कौन आयेगा

सलीम उद्दीन 'रहबर'

Sunday, February 8, 2009

शाम से याद सताती है तो पी लेता हूँ

शाम से याद सताती है तो पी लेता हूँ
जिंदगी आस बंधाती है तो जी लेता हूँ
आरज़ू प्यार की मरने नहीं देती मुझको
दिल के ज़ख्मों को 'मज़हर' ख़ुद ही सी लेता हूँ

मज़हर अली 'क़ासमी'

सुहानी रात और ये चांदनी अच्छी नहीं लगती

सुहानी रात और ये चांदनी अच्छी नहीं लगती
तुम्हारे बिन तो अब ये ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती

तुम्हारी ही नज़र ने ज़िन्दगी को ताज़गी दी है
न फेरो अब नज़र बेगानगी अच्छी नहीं लगती

ज़रा आकर तो देखो हर तरफ़ जशने बहारां है
बहारों से भी ये नाराज़गी अच्छी नहीं लगती

अभी खिल जायेंगी कलियाँ ज़रा तुम मुस्कुराओ तो
तुम्हारे रुख़ पे ये अफ्सुर्दगी अच्छी नहीं लगती

हमारी ही तरह वो हीर राँझा भी तो बेबस थे
ये बंधन तोड़ दो अब बेबसी अच्छी नहीं लगती

सताए जो रुलाए और हमेशा दिल दुखाए है
'क़मर' हमको तो उससे दोस्ती अच्छी नहीं लगती

हाजी मोहम्मद सिद्दीक 'क़मर'

Saturday, February 7, 2009

माँ-बाप की खिदमत करो खिदमत करो प्यारे

माँ-बाप की खिदमत करो खिदमत करो प्यारे
बन जाओगे उनके लिए तुम आंख के तारे

रख कर के कोख में तुझे खूं अपना पिलाया
मांगी दुआएं मन्नते तब तुझ को जिलाया
जूझी वो मौत से तब ये मर्तबा पाया
छाती छुला के तुझको तुझे धन्य बनाया
करते रहे वो फ़र्ज़ अदा वो तो न हारे

माँ-बाप की खिदमत करो खिदमत करो प्यारे

पहला तुम्हारा फ़र्ज़ है इज्ज़त करो उनकी
सुख चैन और जन्नत क़दमों में है जिनकी
हो गर बड़े घर में छोटों को भी समझाओ
छोटे अगर हो घर में तो बात मन जाओ
ऊँचा रहेगा रुतबा यहाँ झुक के ही प्यारे

माँ-बाप की खिदमत करो खिदमत करो प्यारे

माँ-बाप के दिल से तो समंदर भी है छोटा
माँ-बाप चाहते है भले दाम हो खोटा
हो जाए तुम से ग़लती ग़लती मना लो अपनी
दिल में बसे रहोगे ग़लती हो चाहे जितनी
मांगो तो माफ़ी माफ़ है कर देते बेचारे

माँ-बाप की खिदमत करो खिदमत करो प्यारे

माँ-बाप पाल लेते है बच्चे हों चाहे चार
बदले में नहीं मिलता है बच्चों से उनको प्यार
बच्चे बड़े होते ही समझते हैं उनको बोझ
होते ही ब्याह उनके बदल जाती उनको सोच
है हाँथ में तुम्हारे चमका लो सितारे

माँ-बाप की खिदमत करो खिदमत करो प्यारे

औलाद जो माँ-बाप की न बात सुनेगा
उसको इसी जनम में यहाँ बदला मिलेगा
माँ-बाप के तू पैर दबाने से बचेगा
बच्चा तेरा देखेगा और तुझ से कहेगा
मैंने तुम्हीं को देख कर हैं पैर पसारे

माँ-बाप की खिदमत करो खिदमत करो प्यारे
बन जाओगे उनके लिए तुम आंख के तारे


मज़हर अली 'कासमी'



दर्द की शाम ढलने लगी

दर्द की शाम ढलने लगी

जिंदगी मुस्कुराने लगी

नींद आँखों से रुखसत हुई

याद तेरी सताने लगी

तेरी तस्वीर अब रात भर

मेरे सपने में आने लगी


रास तारीकियाँ आ गईं

रौशनी दिल जलने लगी


इश्क तनहाई से हो गया

रास तनहाई आने लगी


कुफ्र से दूरियां हो गईं

बंदगी रास आने लगी


'अश्क' की गुनगुने ग़ज़ल

उसके होंटों पे आने लगी


उमर अश्क झांसवी

Friday, February 6, 2009

हम उसे बावफा समझे थे बेवफा निकला

हम उसे बावफा समझे थे बेवफा निकला
फूल की शक्ल में दिल पर चुभा कांटा निकला

हम तो फितरत ही समझते रहे हमसाये की
जिसने घर मेरा जलाया मेरा अपना निकला

जिस पे करता रहा में जान निछावर अपनी
वह सितमगर ही मेरी जान का प्यासा निकला

छोड़ कर मुझको भंवर में वो किनारे से लगा
कितना खुदगर्ज़ मेरा देखो नखुदा निकला

घर जला मेरा बुझाने नही कोई आया
सब तमाशाई थे कोई न मसीहा निकला

में हकीक़त ही समझता रहा उन ख्वाबों को
नींद से जागा तो एक ख्वाब अधूरा निकला

मेरी बर्बादी पे गैरों के 'अश्क' भर आए
मेरा अपना ही मेरे हाल पे हँसता निकला

उमर अश्क झांसवी

हम तबाही के ये हालत बताएं किसको

हम तबाही के ये हालत बताएं किसको
ज़ख्म दिल गहरे हैं इतने के दिखाएं किसको

क्या करें आग भड़कती तो है दिल में सब के
जिंदगी ख़ुद ही चिता है तो जलाएं किसको

ओस की बूंदों से भीगे हैं सभी के दामन
अपने हम दर्द का अहसास दिलाएं किसको

हम न छीनेंगे किसी और के होंटों की हसी
मुस्कुराने की तमन्ना में रुलाएं किसको

कौन अब देगा सहारा तेरी रहमत के सिवा
तू हमारा है तो आवाज़ लगाएं किसको

कौन बिगड़ी हुई तकदीर का साथी है 'नयाज़'
इस ज़माने में भला अपना बनाएं किसको

नयाज़ महोब्वी

Tuesday, February 3, 2009

चाँद जब छत पे मेरी आया है

चाँद जब छत पे मेरी आया है
अक्स तेरा ही उसमें पाया है

कितनी फुर्सत में ऐ सनम तुझको
मेरे रब ने तुझे बनाया है

तेरी यादों ने मेरे सीने में
खुशबुओं का नगर बसाया है

उसको गुलशन की है ज़रूरत क्या
तेरी जुल्फों का जिसपे साया है

बैरी सावन हमारे आँगन में
याद तेरी दिलाने आया है

अपनी तन्हाई की हर एक शब में
ख़ुद को तेरे क़रीब पाया है

समझा वो प्यार क्या है जिसने भी
गीत 'मज़हर' का गुनगुनाया है

मज़हर अली क़ासमी

Monday, February 2, 2009

प्यार में तेरे धोखा खाया है

प्यार में तेरे धोखा खाया है
तू मगर दिल पे अब भी छाया है

वो जो आये तो यूँ लगा हमको
चाँद आँगन में जैसे आया है

मेहरबां इस क़दर है वो मुझ पर
जो भी माँगा है उससे पाया है

रंज, अलम, दर्द और ग़म देकर
बारहा उसने आज़माया है

दिल दुखा के 'मज़हर' का ऐ हमदम
रात भर वो भी सो न पाया है

मज़हर अली 'क़ासमी'

Sunday, February 1, 2009

भ्रूण हत्या

हांथों से अपने कैसे, गला घोंट दिया तुमने
इन्सान होते तुम, कभी ऐसा गुनाह न करते.
टुकडा जिगर का रखते, अपने जिगर लगा के
टुकडा जिगर का अपना, ऐसे जुदा न करते.
बेटी तो मोहब्बत है, नफरत नहीं है यारो
होती अगर ये नफरत न रो-रो के बिदा करते.
ससुराल में पहुंचकर, खुश रहे ये दुख्तर
खुशियों के लिए उसकी, सजदे न अदा करते.
बर्बाद किया क्यों कर, अपने चमन को तुमने
अपने ही हाँथ अपना, घर न तबाह करते.
जिस घर नहीं है बहना, ज़रा कल्पना तो कीजे
किससे बंधाते राखी, किससे लड़ा करते.
हक बाप, भाई, माँ का, निभाती हैं बेटियाँ
जिनके नहीं है बेटी, किस्से ही सुना करते.
ऐसा ही अगर करते, पूर्वज हमारे
किससे विवाह करते, किससे निकाह करते.
नेकियों की ख्वाहिश, और पाप किया तुमने
बेटों की खातिर अपनी, बेटी न जिबह करते.

नईम