Sunday, March 22, 2009

जिधर भी देखो फसादों शर है कहीं भी अमनो अमां नहीं है

जिधर भी देखो फसादों शर है कहीं भी अमनो अमां नहीं है

करोडों जनता है भूंखी प्यासी मयस्सर उनको मकाँ नहीं है

ये कैसे-कैसे सुनहरे सपने दिखा रहे हो युगों से हमको

किसान मेहनत कशों को देखो कोई भी तो शादमां नहीं है

ये नन्हें बच्चे जो सूखे टुकड़े तलाशते है गली-गली

में न बाप इनका, न माँ है इनकी कोई भी अब मेहरबां नहीं है

न कोई साथी, न कोई मोहसिन, न कोई मोनिस, न कोई हमदम

जिधर भी देखो है जाँ के दुश्मन कोई भी मेहरबां नहीं है

हबीब मेरे, रक़ीब मेरे, न जाने क्यों बदगुमां हैं मुझसे

बला से हो जाये बदगुमां सब, है शुक्र वो बदगुमां नहीं है

हो कोई ऐसा अगर नज़र में तो मेरे हमदम मुझे बताना

वो वाकई खुशनसीब होगा जो आज कल सरगरान नहीं है

"क़मर" से नालां हैं गुन्चाओ गुल, है बागबां भी खफा-खफा सा

है तंग उस पर ज़मीन उस पर, ये शुक्र के आसमां नहीं है

मुहम्मद सिद्दीक 'क़मर'