Wednesday, March 24, 2010

ग़ज़ल

बदली बदली निगाह लगती है
जिंदगी अब गुनाह लगती है

मेरी आँखों से उसको देखो तो
वो हसीं बेपनाह लगती है

जिसका दिल मेरे ग़म से है ग़मगीं
मेरी उस दिल में चाह लगती है

अब मिरे ग़म की खुद मुझे रुदाद
मेरे दिल की कराह लगती है

इतने ज़ुल्मो-सितम के बाद भी तो
वह मिरी खैरख्वाह लगती है

है नज़र जिसकी सिर्फ मंजिल पर
हर तरफ उसको राह लगती है

धूप ही धूप दूर तक फैली
अब कहीं भी न छाँव लगती है

इतना धोखा दिया है उसने 'सोज़'
अब मुहब्बत गुनाह लगती है

प्रोफेसर राम प्रकाश गोयल 'सोज़'
mobile : 9412287787
रुदाद - कहानी
खैरख्वाह - हितेषी

ग़ज़ल

आसमाँ में न मुझे इतना उडाओ यारो
मैं हूँ इन्सान फ़रिश्ता न बनाओ यारो

जिंदगी दी है ख़ुदा ने तो मुहब्बत के लिए
उसका पैग़ाम यह दुनिया को सुनाओ यारो

तुमसे बिछुड़ा हूँ तो क्या हाल हुआ है मेरा
देखना हो तो मिरे दिल में समाओ यारो

नाम मिट जाये हमेशा के लिए नफरत का
प्यार कि ऐसी कोई शमा जलाओ यारो

कल न आया है न आयेगा कभी 'सोज़' का भी
जो भी करना है अभी करके दिखाओ यारो

प्रोफेसर राम प्रकाश गोयल 'सोज़'
mobile : 9412287787

Tuesday, March 9, 2010

ग़ज़ल

ज़िन्दगी प्यार है कोई सज़ा तो नहीं
मेरी चाहत किसी से जुदा तो नहीं

मेरे बस में जो था मैंने वो कर दिया
एक इन्सान हूँ कोई ख़ुदा तो नहीं

इससे पहले के ऊँगली उठे ग़ैर पर
देख लेना कहीं आइना तो नहीं

मुस्कुराते हुए एक दिए ने कहा
ए हवा देख ले मैं बुझा तो नहीं

मैंने कल रात सोचा बहुत देर तक
चाहती हूँ जिसे बेवफा तो नहीं

पहले सुनिए, समझिये हकीक़त है क्या
देखिये कहीं ये हवा तो नहीं

'प्रीति' के हौंसले पस्त कर दे कोई
ऐसा मैंने अभी तक सुना तो नहीं

मंजुश्री 'प्रीति'
mobile : 9415478757

ग़ज़ल

आज हर बात से डर लगता है
बदले हालात से डर लगता है

छीन कर ले गये जो अम्नो-चैन
उनके जज़्बात से डर लगता है

हज़ारों घर तबाह करके बांटते हैं जो
उनकी खैरात से डर लगता है

इस क़दर नफरतों का आलम है
प्यार की बात से डर लगता है

डॉ गीता गुप्त
Phone : 0755-2736790

ज़ुल्म ढाते हो मुस्कुराते हो

ज़ुल्म ढाते हो मुस्कुराते हो
दिल ये ऐसा कहाँ से लाते हो

नाम लेकर मुझे बुलाते हो
सारी महफ़िल को क्यों जलाते हो

इन्सां कमज़ोरियों का पैकर है
उससे उम्मीद क्यों लगाते हो

तुम तो आये थे ज़िन्दगी बनकर
छोड़कर मुझको कैसे जाते हो

हिचकियाँ बार-बार आती हैं
इस क़दर क्यों मुझे सताते हो

उम्र भर तुम रहोगे मेरे ही
ख़्वाब कितने हसीं दिखाते हो

जब भी देखा है सोच कर तुमको
दिल के नज़दीक मुस्कुराते हो

दोस्ती नाम है मुहब्बत का
दोस्ती क्यों नहीं निभाते हो

तुम जो देते हो बददुआ मुझको
'सोज़' कि ज़िन्दगी बढ़ाते हो

प्रोफेसर राम प्रकाश गोयल 'सोज़'
मोबाइल : 9412287787

पैकर - शरीर

बिन तुम्हारे बसर किया हमने

बिन तुम्हारे बसर किया हमने
यूँ भी तन्हा सफ़र किया हमने

तुमने जीती है सल्तनत लेकिन
दिल में लोगों के घर किया हमने

आज के दौर में वफ़ा करके
अपने दामन को तर किया हमने

वो उठाते हैं उँगलियाँ हम पर
जिनमें पैदा हुनर किया हमने

उनकी यादों के जाम पी पी के
दर्द को बेअसर किया हमने

जानता हूँ कि बेवफा है वो
साथ फिर भी गुज़र किया हमने

जब भी दुनिया पे ऐतबार किया
ख़ुद को ही दर-बदर किया हमने

दोस्ती में मिटा के ख़ुद को 'सोज़'
दोस्ती को अमर किया हमने

प्रोफेसर राम प्रकाश गोयल 'सोज़'
मोबाइल : 9412287787

Friday, February 12, 2010

मांग कर दहेज़

मांग कर दहेज़ खुद को छोटा कर लेते हैं लोग
अपने खरे सिक्के को भी खोटा कर लेते हैं लोग
मांगना ही चाहते तो मांगिये भगवान से
खर्च करने में मिले आनंद करो शान से
अपने स्वाभिमान में भी टोटा कर लेते हैं लोग
मांग कर दहेज़ खुद को छोटा कर लेते हैं लोग

दिल दुखा कर आपने लिया अगर तो क्या लिया
इस तरह चादर बड़ा किया अगर तो क्या किया
अपनी सुराही ही खुद ही लोटा कर लेते हैं लोग
मांग कर दहेज़ खुद को छोटा कर लेते हैं लोग

बाजुओं में दम है तो क्या हम कमा सकते नहीं
पांव अपनी चादर में क्या हम समा सकते नहीं
क्यों नहीं सीमाओं से समझौता कर लेते हैं लोग
मांग कर दहेज़ खुद को छोटा कर लेते हैं लोग

प्रभा पांडे 'पुरनम'
Phone : 0761-2412504

Friday, February 5, 2010

एक शाम

एक शाम तेरी आस के नाम
दूध मैं नहाई - चांदनी के नाम
झम - झम चमकती बिजुरिया
के आँचल में छुपे चाँद के नाम ।
एक शाम। बहकते कदम
महकते बदन और
लचकते यौवन के नाम।

एक शाम प्रियतम की प्रीत भरी बातें
जवानी में सुलगती सी रातें
मुहब्बत पर सुबह तक समर्पित
मीठी मनुहार को अर्पित
चंद लम्हों में सम्पूर्ण ज़िन्दगी
को जीने के नाम
पीने के नाम
एक शाम। एक शाम। एक शाम।
तेरी मोहब्बत पर मर मिटने के नाम ।

डॉ प्रियंका सोनी 'प्रीत'
mobile no. 9765399969

Saturday, January 23, 2010

ग़ज़ल

चलो तुम्हारे लिये प्यार का सफ़र कर लें
गुनाह कोई करें राह मुख़्तसर कर लें

ज़माना हमको कहीं ठहरने नहीं देता
क़याम आज इधर है तो कल उधर कर लें

हमें जलायेगी सूरज की धूप भी इक दिन
तो बादलों को भी हम अपना हमसफ़र कर लें

तुम्हारा साथ अगर उम्र भर को मिल जाये
तमाम खोयी हुयी मंजिलों को सर कर लें

न जाने कौन सा लम्हा हमें डरा जाये
बहुत है शोर चलो खुद को बेख़बर कर लें

न जाने शाहजहाँ कोई फिर से मिल जाये
यह हाँथ काट के हम ख़ुद को बेहुनर कर लें

अँधेरी रात है तन्हाईयाँ हैं 'शाहीन'
हसीन ख़्वाब बुनें और फिर सहर कर लें

अर्चना तिवारी 'शाहीन'
mobile. 9415996375

ग़ज़ल

तुम नहीं आये तुम्हारी याद मुझको आ गयी
दिल ख़यालों में ही उलझा कुछ बात मन को भा गयी

क्या करूँ शिकवा शिकायत रोग दिल का है यह बस
कुछ तमन्नायें यूँ भड़कीं और दिल पे छा गयी

मैं तुम्हारी तुम हो मेरे इतना बस अपना जहाँ
साडी दुनिया कि यह खुशियाँ मैं लुटाने आ गयी

हर क़दम अपना बढ़ेगा तो बढ़ेगा साथ ही
साथ जीवन भर तुम्हारा मैं निभाने आ गयी

तुम हो मेरी जिंदगी और मैं तुम्हारी आरज़ू
हाल-ए-दिल कुछ यूँ तुम्हारा मैं सुनाने आ गयी

आशिक़ी में डूब के देखा तो तुम ही तुम दिखे
आईना-ए-दिल ख़ुद अपना मैं दिखाने आ गयी

अर्चना तिवारी 'शाहीन'
mobile 9415996375

ग़ज़ल

मैं इन्तज़ार के दीपक जलाये बैठी हूँ
तुम्हारी राह में आँखें बिछाये बैठी हूँ

जो फूल तुमने किताबों में रख के भेजे थे
उन्हें मैं आज भी दिल से लगाये बैठी हूँ

तमाम घर तो महकता है उसकी खुशबू से
क्यूँ अपने जिस्म पे चन्दन लगाये बैठी हूँ

तुम्हारी राह अँधेरे न रोक पायेंगे
मैं अपनी पलकों पे जुगनू सजाये बैठी हूँ

है एक वो जो मुझे याद भी नहीं करता
मैं उसकी याद में दुनिया भुलाये बैठी हूँ

यक़ीन है वो सुहागन मुझे बनायेगा
मैं अपनी सेज पे कलियाँ सजाये बैठी हूँ

कोई भी ग़म उसे 'शाहीन' छू नहीं सकता
दुआ को हाँथ मैं अपने उठाये बैठी हूँ

अर्चना तिवारी 'शाहीन'
mobile 9415996375

ग़ज़ल

अपने हांथों पर मैं तेरा नाम ही लिक्खा करती हूँ
नाम को लिखकर छूती हूँ फिर उसको चूमा करती हूँ

याद तुझे मेरी आये न आये याद मैं करती हूँ
हांथों में तेरी ही सूरत रोज़ में देखा करती हूँ

नज़रों में तू समा गया है यह महसूस में करती हूँ
हर पल तेरे साथ में गुज़रा याद किया मैं करती हूँ

तेरी याद सताती है जब मैं कुछ सोचा करती हूँ
थक जाती हूँ फिर भी तेरा रस्ता देखा करती हूँ

बेशक दूर हुये हम दोनों पर एतबार मैं करती हूँ
कितना भी तू दूर रहे पर तुझसे प्यार मैं करती हूँ

अर्चना तिवारी 'शाहीन'
mobile 9415996375

Saturday, January 9, 2010

मैंने वरदान मांगे नहीं थे कभी

मैंने वरदान मांगे नहीं थे कभी
याचना में मेरी कुछ कमी रह गयी
सालता ही रहा ज़िंदगी भर ये दुःख
तेरे देने में शायद कमी रह गयी

मैं मरुस्थल में पानी रहा खोजता
पर समुन्दर में बरसात होती रही
प्यास लेकर सदा जो भटकते रहे
उनके आँगन में चल के नदी आ गयी

तुमसे मिलके मुझे इस तरह से लगा
जैसे शापित को वरदान निधि मिल गयी
तुमको पाया तो मुझको ख़ुशी वह मिली
जैसे पारस की कोई मणि मिल गयी

मेरा नाता नहीं था कहीं दूर तक
दर्श करके मेरी ज़िंदगी बन गयी
मेरा कोई भी अपना नहीं था कहीं
मुझको जीने की फिर से कड़ी मिल गयी

नीचे पैरों के फिसलन बहुत थी मेरे
आज पैरों के नीचे ज़मीं मिल गयी
खोजते ही रहे ज़िंदगी भर जिसे
ऐसे हीरे की मुझको कनी मिल गयी

तुम मिले तो मुझे मिल गयी ज़िंदगी
रोते चेहरे पे मेरे ख़ुशी आ गयी
यूँ समझ भार जीवन जिया था जिसे
आज जीने की मुझको समझ आ गयी

उमेश कुलश्रेष्ठ 'दीप'
mobile . 9412415277, 9721148923

Friday, January 8, 2010

यह राह नहीं है फूलों की

यह राह नहीं है फूलों की
इस पर दिल वाले चलते है
खिलता जब कोई फूल कमल
भौंरे दिन रात मचलते हैं

काँटों से बिछी राह हो तो
बिरले ही उस पर चलते हैं
बलिदान ख़ाक क्या वे होंगे
जो अंगारों से डरते हैं

वे ही आदर्श निभाते हैं
जो स्वयं दीप बन जलते हैं
उनको ही राह बुलाती है
जो अपनी राह बनाते हैं

वो ही स्वागत के अधिकारी
जो देख स्वयं को लेते हैं
क्षण भर भी नहीं गंवाते हैं
इतिहास नया वे रचते हैं

यह राह नहीं है फूलों की
इस पर दिल वाले चलते है


उमेश कुलश्रेष्ठ 'दीप'
mob. 9412415277, 9721148923

नसीब जगाती हैं बेटियां

भाग्य ले के अपना ख़ुद आती हैं बेटियां
पत्थर जिगर को मोम बनाती हैं बेटियां

भूल से मत कहिये हैं नसीब की मारी
सोया हुआ नसीब जगाती हैं बेटियां

घर आँगन की हैं ये चहकती सी चिड़ियाँ
घर का कोना-कोना चेह्काती हैं बेटियां

आती हुई अमराई से मीठी सी हैं बयार
घर का ज़र्रा-ज़र्रा महकाती हैं बेटियां

किस्मत अगर दे ज़ख्म तो मरहम हैं बेटियां
हर दुआ पीहर पे लुटाती हैं बेटियां

खाती हैं रुखी सुखी और पी लेती हैं पानी
पीहर की हर कमी को छिपाती हैं बेटियां

खुश देख माता पिता को होती हैं खुश सदा
दुःख दर्द हो तो दौड़ती आती हैं बेटियां

खुशनसीब हैं वो जो करते हैं कन्यादान
स्वर्ग की देहरी भी खुलवाती हैं बेटियां

प्रभा पांडे 'पुरनम'
ph. 0761-2412504

ग़ज़ल

नाम ही बस बदलते रहे
रिश्ते उलझे उलझते रहे

जिंदगी को न समझे कभी
हम हमेशा भटकते रहे

प्यार का जुर्म जिनसे हुआ
वह सज़ा भी भुगतते रहे

वह कभी न किसी के हुए
दोस्तों को बदलते रहे

जिनको दुनिया का दर ही न था
प्यार करते थे करते रहे

मेरा सम्मान क्या हो गया
दिल ही दिल में वह जलते रहे

जो न ईमां से अपने हटे
नाम दुनिया में करते रहे

कितने मासूम हैं वह मगर
बात मतलब की करते रहे

वह तो आराम से सो गये
'सोज़' करवट बदलते रहे

प्रोफेसर राम प्रकाश गोयल 'सोज़'
mob. 9412287787

ईमां - ईमान

बेटी के जन्म पर

मन नहीं गिराइये बेटी के जन्म पर
गाइये बजाइये बेटी के जन्म पर

तोतली भाषा में बेटी कहेगी पापा
याद नहीं रहेगा उस समय आपा
ज़रा ना लजाइये बेटी के जन्म पर
मन नहीं गिराइये बेटी के जन्म पर

फ्राक पहन बेटी जब स्कूल जायेगी
उस समय भी आपके जी को भायेगी
दिल से मुस्कुराईये बेटी के जन्म पर
मन नहीं गिराइये बेटी के जन्म पर

हाथ में जिस वक़्त वो मेंहदी रचायेगी
हाँथ से बढ़कर ह्रदय तेरा सजायेगी
खुशियाँ भी छिटकाइये बेटी के जन्म पर
मन नहीं गिराइये बेटी के जन्म पर

डोली में सज बेटी जब ससुराल जायेगी
पुण्य कन्यादान का तुमको दिलायेगी
स्वर्ग का सुख पाइये बेटी के जन्म पर
मन नहीं गिराइये बेटी के जन्म पर

प्रभा पांडे 'पुरनम'
ph. 0761-2412504

वाह री मैया न्याय तेरा

भैया तो खेले बस खेले, घर कि सफाई मेरे नाम
वाह री मैया न्याय तेरा मैं देखा करती सुबह शाम

कभी-कभी तो आँख बचाकर दूध मलाई देती हो
दाल-भात बस मेरे आगे धीरे से सरका देती हो
देख देख अभ्यस्त हो गई हूँ मैया ये तेरे काम
वाह री मैया न्याय तेरा मैं देखा करती सुबह शाम

भैया के क्या गाल हैं मीठे हर पल चुम्मी देती हो
मैं जो गाल करूँ आगे तो बस थप्पड़ जड़ देती हो
मुझसे प्रेम जताया तो क्या रूठ जायेंगे सीताराम
वाह री मैया न्याय तेरा मैं देखा करती सुबह शाम

सोता भी है भैया तो तुम आँचल में सिमटा लेती
मैंने देख लिया तो मैया झट नज़रें पलटा लेती
ऐसा कर के मिल जाता है मैया क्या तुमको आराम
वाह री मैया न्याय तेरा मैं देखा करती सुबह शाम

प्रभा पांडे ' पुरनम '
ph. 0761-2412504

Thursday, January 7, 2010

दे के जन्म

दे के जन्म मुझपे बड़ा उपकार किया है
भैया को टाफी मुझे मात्र गुड़ ही दिया है

भैया को लेकर दिये बात और कंचे
पर हमारे लिए तो पत्थर भी ना जँचे
तिसपे भी सब बूढ़ों का विरोध लिया है
दे के जन्म मुझपे बड़ा उपकार किया है

दीवाली पर भैया को वस्त्र और जूते
मेरे पुराने चले इस्त्री के बलबूते
फिर भी मुझे देख ज़हर जैसे पिया है
दे के जन्म मुझपे बड़ा उपकार किया है

जन्म दिन भैया का कटा केक, दी दावत
मेरा जन्म दिन तो जैसे रात अमावस
आंसूं के धागे से होंठ मैंने सिया है
दे के जन्म मुझपे बड़ा उपकार किया है

प्रभा पांडे 'पुरनम'
ph. 0761-2412504

हूँ आपकी ही बेटी

हूँ आपकी ही बेटी मुझे मारिये नहीं
चटा अफीम यूँ झूले में डारिये नहीं

किसी ना किसी का वंश तो चलेगा मुझसे
बेटा कभी किसी का तो पलेगा मुझसे
श्वेत वस्त्र दे धरा में यूँ गाडिये नहीं
हूँ आपकी ही बेटी मुझे मारिये नहीं

आपकी भी माँ कभी बेटी रही होगी
पीर आपके लिये न उसने सही होगी
जन्म मैंभी दूंगी कभी, बिसारिये नहीं
हूँ आपकी ही बेटी मुझे मारिये नहीं

कोई कोई बेटियों को फिरे तरसता
फिर भी मेह प्रार्थना पर नहीं बरसता
क़ुदरत कि रची पौध हूँ उजाडिये नहीं
हूँ आपकी ही बेटी मुझे मारिये नहीं

प्रार्थना से मेरी घर भैया भी आयेगा
पुण्य कन्यादान का घर भर कमायेगा
अपने हांथों भाग्य ख़ुद बिगाडिये नहीं
हूँ आपकी ही बेटी मुझे मारिये नहीं

प्रभा पांडे 'पुरनम'
ph. 0761-2412504

Wednesday, January 6, 2010

कभी मत भार मानिये

बेटी घर में है तो प्रभु उपकार मानिये
अपनी बेटी को कभी मत भार मानिये

बेटी राधा बेटी सीता
बेटी रामायण और गीता
बेटी तो है परम पुनीता
बेटी बिन ये जग है रीता

बेटी को सुख शांति का आधार मानिये
अपनी बेटी को कभी मत भार मानिये

यूँ तो बेटी फूल कली
बागों की उड़ती तितली
माना उसको करमजली
तब तो बन जाती बिजली

बेटी भाग्य लक्ष्मी की पुचकार मानिये
अपनी बेटी को कभी मत भार मानिये

घर के आँगन की क्यारी
खुशियों की है फुलवारी
चिड़ियों जैसी किलकारी
ना जाने फिर क्यों भारी

पूर्व जन्म के पुण्य मिले इस बार मानिये
अपनी बेटी को कभी मत भार मानिये

प्रभा पांडे 'पुरनम'
ph. 0761-2412504

बेटे की लालच में

बेटे की लालच में हो गई हैं चार बेटियां
हर कोई बिचकाता है मुंह बार-बार बेटियां

बेटा ना हुआ तो इसमें क्या मेरा कसूर था
पूर्वजों को पानी कौन देगा भय ज़रूर था
भ्रूण हत्या की गई दो, चार बार बेटियां
बेटे की लालच में हो गई हैं चार बेटियां

अब तो डाक्टर ने भी कह दिया नसबंदी करा
खुद पे अत्याचार न कर देख अब तो बाज़ आ
मर गई तो कौन रखेगा कतार बेटियां
बेटे की लालच में हो गई हैं चार बेटियां

घर की बड़ी बुढियां तो अब भी मानती नहीं
मुझपे गुज़रती है क्या ये कोई जानती नहीं
हो रहा तानों से जिया तार-तार बेटियां
बेटे की लालच में हो गई हैं चार बेटियां

मायके गई भतीजे के विवाह के लिए
मान गई पति को मैं इस सलाह के लिए
चुपचाप नसबंदी करा, जीवन संवार बेटियां
बेटे की लालच में हो गई हैं चार बेटियां

पढ़ा लिखाकर बेटियों की ज़िन्दगी संवार दी
बिन दहेज़ दीं, ना कैश और न कार दी
हर बुरे समय में हाज़िर रहती चार बेटियां
बेटे की लालच में हो गई हैं चार बेटियां

प्रभा पांडे 'पुरनम'
Ph. 0761-2412504

अजन्मी बेटी कि शिकायत

माँ मैं तेरे गर्भ के भीतर नन्हीं सी कोंपल हूँ
तेरे हृदय कमल पर शोभित एक पराग दल हूँ

जब से सुना है मैंने भ्रूण हत्या को तुम तत्पर हो
शायद मैं लड़की हूँ जान यही तुम लगती जड़ हो

तब से बिना छुरी कैंची ही भीतर तक घायल हूँ
माँ मैं तेरे गर्भ के भीतर नन्हीं सी कोंपल हूँ

अगर नहीं लाना था जग में धारण गर्भ किया क्यों
आपने भीतर दे संरक्षण सिंचित मुझे किया क्यों

इसी प्रश्न का उत्तर न मिलने से मैं पागल हूँ
माँ मैं तेरे गर्भ के भीतर नन्हीं सी कोंपल हूँ

एक तुम्हारे हाँ कहने से मुझ पर शस्त्र चलेंगे
कैंची, चाकू, बिजली झटके सर पर मेरे पड़ेंगे

रो तक ना पाऊँगी माँ मैं तो इतनी दुर्बल हूँ
माँ मैं तेरे गर्भ के भीतर नन्हीं सी कोंपल हूँ

इंजेक्शन लगते ही माँ मैं धरती पर तड़पूंगी
तुम भी कुछ ना कर पाओगी यहाँ वहां लुडकूंगी

खून मांस से भरा पड़ा सा जैसे एक दलदल हूँ
माँ मैं तेरे गर्भ के भीतर नन्हीं सी कोंपल हूँ

यहाँ वहां बिखरी होगी मेरी आँतों की सुतली
कुत्ता-बिल्ली नोचेंगे मेरी आँखों की पुतली

दर्द कहाँ सह पाऊँगी माँ मैं इतनी दुर्बल हूँ
माँ मैं तेरे गर्भ के भीतर नन्हीं सी कोंपल हूँ

रोटी-दूध नहीं था मैं सुखी रोटी खा लेती
कम से कम तेरे आँचल की छाया तो पा लेती

नहीं शिकायत करती माँ मैं सब इतनी चंचल हूँ
माँ मैं तेरे गर्भ के भीतर नन्हीं सी कोंपल हूँ

यदि मैं लड़का होती तो भी क्या यह निश्चय लेती ?
चाकू छुरी चलाने वाले हांथों मुझको देती ?

भेदभाव माँ भी कर सकती सोच के मैं बेकल हूँ
माँ मैं तेरे गर्भ के भीतर नन्हीं सी कोंपल हूँ

छोटे हुए फ्राक और जूते दीदी के पहनूँगी
और किताबें भैया की लेकर ही मैं पढ़ लूँगी

खर्चा नहीं बढ़ाऊँगी वादा करती प्रतिपल हूँ
माँ मैं तेरे गर्भ के भीतर नन्हीं सी कोंपल हूँ

जीवन मुझे मिला तो माँ मैं हर कर्त्तव्य करुँगी
भैया से भी बढकर वृद्धावस्था सरल करुँगी

आज सभी कुछ समझाऊं मैं इतनी कहाँ सबल हूँ
माँ मैं तेरे गर्भ के भीतर नन्हीं सी कोंपल हूँ

जीने की इच्छा है मेरी, जग में आने दो ना
अपना आँगन और बगिया मुझको महकाने दो ना

भैया, दीदी, पिता तुम्हें सबको मिलने आकुल हूँ
माँ मैं तेरे गर्भ के भीतर नन्हीं सी कोंपल हूँ

प्रभा पांडे 'पुरनम'
ph. 0761 - 2412504

Monday, January 4, 2010

वक़्त हँस के गुज़ारा करो

वक़्त हँस के गुज़ारा करो
तुम हंसों और हंसाया करो

इसको समझो तुम अपना ही घर
अपने घर रोज़ आया करो

झुकती नज़रों ने सब कह दिया
यूँ ही नज़रें झुकाया करो

हैं ये आंसूं बहुत क़ीमती
बेसबब मत बहाया करो

इस बहाने में कुछ दम नहीं
यूँ न बातें बनाया करो

दिन में मिलने से मजबूर हो
ख़्वाब में मिलने आया करो

तुम गले तो लगते रहे
दिल से दिल भी लगाया करो

'सोज़' हैं ग़म ही ग़म हर तरफ
फिर भी तुम मुस्कुराया करो

प्रोफेसर राम प्रकाश गोयल 'सोज़'
mob. 9412287787

बेसबब - बिना कारण

Saturday, January 2, 2010

वह इतना दूर है मुझसे कि आसमाँ की तरह

वह इतना दूर है मुझसे कि आसमाँ कि तरह
मगर मैं पास हूँ उसके तो उसकी जाँ कि तरह

अकेला आया है इन्सां अकेला जायेगा
हमेशा चलते रहो तुम भी कारवां की तरह


मिरी वफाओं पै उसको यकीं न आया kabhi
हिफाज़त उसकी मगर कीहै पासबाँ की तरह

मिला न तुमको मिलेगा कभी न मुझ-सा दोस्त
रहा हूँ साथ तुम्हारे मैं राज़दां की तरह

थे वह भी दिन कि मुझे चाहता था दिल से वह
मगर यह बात हुई अब तो दास्ताँ की तरह

यही है आरज़ू बस इक यही तमन्ना है
फ़लक पे चमके हमेशा वह कहकशां कि तरह

यह और बात वह मुमताज़ बन सकी न मिरी
मगर ऐ 'सोज़' उसे चाहा शाहजहाँ की तरह

प्रोफेसर राम प्रकाश गोयल 'सोज़'

पासबाँ - द्वारपाल, राज़दां - रहस्य जानने वाला
दास्ताँ - कहानी, आरज़ू - इच्छा , तमन्ना - कामना
फ़लक - आसमाँ , कहकशां - आकाश गंगा

Friday, January 1, 2010

यह जो तेरा मेरा शबाब है

यह जो तेरा मेरा शबाब है, यह शबाब भी क्या शबाब है
कहीं रहता है ये नक़ाब में, कहीं होता ये बेनक़ाब है

हैं तरह तरह के बशर यहाँ, नहीं कोई शख्स भी है एक सा
जिसे पढ़िये वह ही अजीब है, यहाँ हर बशर ही किताब है

किया कुछ नहीं तो सवाब था, किया जो भी कुछ तो अज़ाब था
है अजीब ज़ीस्त का सिलसिला, नहीं कोई इसका हिसाब है

न सताओ तुम भी ग़रीब को, दुआ ले लो अब भी फ़क़ीर की
वह बिगड़ गया तो समझ लो यह, कि कराह उसकी अज़ाब है

कभी ज़िन्दगी में मिली ख़ुशी, कभी रंजो-ग़म भी मिले मुझे
जो था पास मेरे वह छिन गया, यह करम तेरा बेहिसाब है

लिखा ख़त उन्हें इस उम्मीद से, कि ज़रूर देंगे जवाब वह
जो दिया है वह तो जवाब है, जो नहीं दिया लाजवाब है

कोई कहता ज़िन्दगी ख़्वाब है, कोई कहता इसको हबाब है
नहीं 'सोज़' समझा कोई इसे, यह शबाब है यह शराब है

प्रोफेसर राम प्रकाश गोयल 'सोज़'
mob. 9412287787
शबाब - यौवन, जवानी
नक़ाब - पर्दा
बेनक़ाब - बेपर्दा
बशर - इन्सान
शख्स - आदमी , इन्सान
सवाब - पुण्य का फल
अज़ाब - पाप का दंड
ज़ीस्त - ज़िन्दगी
रंजो ग़म - कष्ट और दुःख
करम - कृपा
बेहिसाब -बहुत अधिक
हबाब -पानी का बुलबुला

पहले दुनिया में मुहब्बत आई

पहले दुनिया में मुहब्बत आई
बाद उसके ही इबादत आई

दोस्तों के ही करम से मुझमें
ग़म से टकराने की हिम्मत आई

जान दे दी है वतन पर जिसने
उसकी तक़दीर में जन्नत आई

जो भी करता है भला दुनिया का
दिल में उसकी ही मसर्रत आई

प्यार करते थे सभी सबको ही
फिर भला कैसे ये नफरत आई

दोस्ती खुद है ख़ुदा को प्यारी
दुश्मनी से ही मुसीबत आई

आदमी चलता है अपने मन से
बाद में ही यह नसीहत आई

दुश्मनी ख़त्म हुई है उनसे
बेकसी मिट गई राहत आई

कुछ नहीं दिल के सिवा 'सोज़' के पास
दिल से दुनिया में अक़ीदत आई

प्रोफेसर राम प्रकाश गोयल 'सोज़'
mob. 9412287787

इबादत - पूजा
करम - कृपा
मसर्रत -ख़ुशी
नसीहत -शिक्षा
बेकसी -दुःख
राहत - चैन
अक़ीदत -भरोसा

सबको आना जाना है

सबको आना जाना है
मौत तो एक बहाना है

समझा नहीं कोई अब तक
ज़ीस्त का ताना बाना है

एक जन्म का नहीं है यह
रिश्ता बहुत पुराना है

कुछ ही वक़्त बचा बाक़ी
अब तो पुण्य कमाना है

धोखा देना बहुत बुरा
बुरा न धोखा खाना है

ऐसे भी हैं दोस्त यहाँ
जिनसे राज़ छिपाना है

खुश क़िस्मत है वो इन्सां
प्यार में जो दीवाना है

कभी नहीं रोना मुझको
मुझको गाना गाना है

पाना है जो 'सोज़' सुकूं
सबको दोस्त बनाना है

प्रोफेसर राम प्रकाश गोयल 'सोज़'
mob.9412287787

ज़ीस्त - जिंदगी