Sunday, April 26, 2009

ग़ज़ल

कितनी हँसी है रात मेरे साथ आइये
करनी है दिल की बात मेरे साथ आइये

आगाज़े गुफ्तगू तो ज़रा कीजिये हुज़ूर
बातों से निकले बात मेरे साथ आइये

लफ्जों ने साथ छोड़ दिया है ज़ुबान का
नज़रों से कीजिये बात मेरे साथ आइये

लम्हा बगैर आप के लगता है एक साल
कटती नहीं हयात मेरे साथ आइये

ताउम्र साथ दोगे यकीं तो नहीं मगर
कुछ दूर की है बात मेरे साथ आइये

ठुकरा दिया है इश्क में सब कुछ यहाँ 'नसीम'
दुनिया की क्या बिसात मेरे साथ आइये

नसीम टीकमगढी

ग़ज़ल

पत्थर समझ के सबने जो ठुकरा दिया मुझे
उसने लगाया हाथ तो चमका दिया मुझे

आवाज़े हक़ उठाई तो ख़ामोश कर दिया
यूँ मेरे एहतिजाज़ का तोहफा दिया मुझे

छेडी थी मैंने जंग तो रोटी के वास्ते
बातों से उस बाखिल ने बहला किया मुझे

असली नहीं चलेगा सियासत में इस लिए
चेहरे पे इक लगाने को चेहरा दिया मुझे

मुझको बहुत गुरूर था ख़ुद पर यकीं करो
आईना फिर भी वक़्त ने दिखला दिया मुझे

शायद मेरे क़रीब में कोई खड़ा तो है
पत्तों ने सरसरा के ये बतला दिया मुझे

उल्फत है न खुलूस न दीवानगी की हद
घर उसने अपने दिल में ये कैसा दिया मुझे

मेरी ख्वाहिशातने नादिम किया 'नसीम'
कैसे सम्भालूं उसने तो इतना दिया मुझे

नसीम टीकमगढी

इन अधरों के 'भोजपत्र' पर

दूँ क्या ? मैं प्रतिफल में तुमको
बतलाओ मनमीत
इन अधरों के 'भोजपत्र' पर
ग़ज़ल लिखूं या गीत.............

केसरिया अंगों पर मेरे,
लिखे प्रणय के शलोक

संयम का हिमगिरी पिघला है
आज पिया मत रोक
लिखी जायेगी शिलापटल पर
तेरी मेरी प्रीत ....................

बाहें मेरी यमक हो गईं
सांसें सब अनुप्रास
बुझ पायेगी क्या एक पल में
जनम जनम की प्यास
साहस का ध्वज लिए रहे तो
होगी अपनी जीत...............

चुम्बन का गुदना अंगों पर
सुधियों का चंदन है
तन में है यमुना की लहरें
मन यह वृन्दावन है
तन की मटकी मन की मथनी
प्यार हुआ नवनीत ...........

उमाश्री

हो गई देश भक्ति उसी दिन....

हो गई देश भक्ति उसी दिन नगन
जब तिरंगे का बगुलों पे डाला कफ़न

दब गए चरखा तकली घोटालों तले
पहले जैसा नहीं बापू तेरा वतन

शान्ति-सुख के पुजारी जो कहलाते थे
पांच दशकों में वो ला न पाये अमन

'स्वर्ण तिथियों' पे दारू की नदियाँ बहीं
अफसराओं सा नाचा घोटालों का धन

जाहिलों को अगर चुनके लाओगे तुम
रो के कहती है धरती बिकेगा गगन

मिलके नेता सभी एक दिन देखना
पहले ईमान फिर बेच देंगे वतन

उनकी आंखों में रहती है नफरत 'उमा'
जिनका होता नहीं है मुहब्बत का मन

उमाश्री

अमनोसुकुं न ख़त्म हो हिन्दोस्तान से

अमनोसुकुं न ख़त्म हो हिन्दोस्तान से
आवाज़ आ रही है ये शंखो अज़ान से

इंसाफ बिक रहा है अदालत की मेज़ पर
फाँसी लगी है सत्य को झूंठे बयान से

वादे किए थे तुमने इलेक्शन में शान से
कर्जे हुए हैं माफ़ क्या पूंछो किसान से

रथ यात्रा जो राम की लेकर चले थे तुम
हासिल हुआ है देश को क्या इस निशान से

दीवानगी पे उनकी हँसी आ गई 'उमा'
उल्फत मिटाने आए थे तीरो-कमान से

उमाश्री

झूंठी रस्मों के तोड़कर ताले

झूंठी रस्मों के तोड़कर ताले
आ भी जा मुझको चाहने वाले

हमने जितने भी ख़्वाब देखे थे
किसने आंखों में क़त्ल कर डाले

कौन बनवा सकेगा ताजमहल
अब कहाँ ऐसे चाहने वाले

बुलबुले ही नहीं हैं पानी पर
ये हैं दरिया के जिस्म पर छाले

हर तरफ़ झूंठ की हुकूमत है
सच के होंठों पे लग गए ताले

अब तो उनको ही डस रहे हैं 'उमा'
जिन सपेरों ने सांप थे पाले

उमाश्री

Saturday, April 25, 2009

हम दिल के हांथों

हम दिल के हांथों ऐसे मजबूर हो गये
हम ख़ुद से दूर दूर बहुत दूर हो गये

ना दिन का चैन है, न रातों में है क़रार
ना ज़िन्दगी से प्यार है, सांसों से नहीं प्यार
इस तरह कोई कैसे गुज़ारे तमाम उम्र
जब ज़िंदगी ही ख़ुद से हो जाये है बेज़ार

ढ़ो-ढ़ो के ज़िंदगी को चूर-चूर हो गए

हम ख़ुद से दूर...................................

किस किस ने खेला दिल से कैसे बताएं हम
इस ग़म के साज़ उसको, कैसे सुनाये हम
ज़ख्मी है दिल को चीर के कैसे दिखाएं हम
इक ज़ख्म हो तो ठीक है, कितने गिनाए हम
वो ज़ख्म पुराने अब, नासूर हो गये

हम ख़ुद से दूर...................................

न ख़त्म होने वाला, अब इंतजार है
वो जानते है बेहद हमें उनसे प्यार है
तन्हाइयां तक़दीर में लिख दी नसीब ने
करता है ज़ुल्म और न वो शर्मसार है
गैरों को छोडिये अपने ही काफूर हो गये

हम ख़ुद से दूर...................................

हम दिल के हांथों ऐसे मजबूर हो गये
हम ख़ुद से दूर दूर बहुत दूर हो गये

मज़हर अली 'क़ासमी'

बिछड़ के आपसे हमको

बिछड़ के आपसे हमको बड़ा एहसास होता है
जिया इस ज़िन्दगी को सोच के ये दिल भी रोता है

तुम्हारे बिन धड़कने को मन करता है मेरा दिल
मेरा दिल शाम सुबह ये दुआ करता है आ के मिल
जो मिल जाओ तो कुछ ज़िन्दगी की आस बंध जाये
नहीं तो रेत मुट्ठी से न जाने कब फिसल जाये
ये दीवाने की क़िस्मत है, जो हंस कर चैन खोता है

जिया इस ज़िन्दगी ......................

तुम्हारे बिन नहीं है चैन, ना दिल को है क़रार आता
ये दिल जो पास में होता, तो दर पे न बीमार आता
मेरे आंसू मेरी फरयाद, कोई काम ना आई
वो संग दिल है ना माना, मैंने दी लाख दुहाई
ख़ुदा से मांगता मिलता ना मांगो कुछ न मिलता ही

जिया इस ज़िन्दगी ......................

अजब ही प्यास इस दिल की नज़र आये तो बुझती है
नहीं मिलता है जब महबूब, शोलों सी भड़कती है
ये दिल भी है बड़ा नादाँ, इसे समझाऊँ मैं कैसे
वफादारी नहीं फितरत, उसे बतलाऊँ मैं कैसे
मेरा दिल भोला-भाला सीदा साधा मुझे महसूस होता है

जिया इस ज़िन्दगी ......................

बिछड़ के आपसे हमको बड़ा एहसास होता है
जिया इस ज़िन्दगी को सोच के ये दिल भी रोता है

मज़हर अली 'क़ासमी'

कैसे तुम को भुला सकेंगे

कैसे तुम को भुला सकेंगे, तुम तो कितने प्यारे हो
पल-पल मेरा दिल कहता है, उससे तुम दिल हारे हो

तेरे नज़र के तीर से घायल, मैं आशिक आवारा हूँ
दर्द छिपाए फिरता है जो, घायल वो बेचारा हूँ
कभी मैं रोता, कभी हूँ हँसता, कभी भटकता राहों में
कभी असर तो आयेगा, दर्द भरी इन आहों में
मेरा कोई नहीं दुनियाँ में, तुम ही एक सहारे हो

पल-पल मेरा दिल कहता है...............................

इश्क में ऐसी हालत होगी, मुझको ये मालूम न था
जितना मैं मजबूर हूँ उतना, मजनूं भी मजबूर न था
तेरे दीद की खातिर भटकूँ, दर-दर ठोकर खाता हूँ
मुझ को तेरी चाहत कितनी, तुझ को आज बताता हूँ
हम तो तेरे जन्म से हैं और माना तुम हमारे हो

पल-पल मेरा दिल कहता है........................

नज़रों को भाता है कोई, इश्क की लौ लग जाती है
जितना बुझाओ बुझे नहीं, वो और भड़कती जाती है
तेरे प्यार में डूब गया हूँ , बचना बहुत मुहाल है
ख़स्ता हाल है कश्ती मेरी, हिम्मत भी बेहाल है
मैं फंसा हूँ बीच भंवर में तुम पहुंचे एक किनारे हो

पल मेरा दिल कहता है..............................

कैसे तुम को भुला सकेंगे, तुम तो कितने प्यारे हो
पल-पल मेरा दिल कहता है, उससे तुम दिल हारे हो


मज़हर अली 'क़ासमी'

धार्मिक बंधन

एक स्थानीय पत्रिका में एक रचना
जब हमने छपने हेतु भिजवाई
तो हमारी रचना संपादक जी की
इस खेदात्मक टिप्पणी के साथ वापस आई
की अग्रवाल जी आपकी रचना
महाभारत के पात्रों के प्रतिकूल है
इसलिए हम अभी आपकी रचना
छापने में स्वंम को पा रहे मजबूर हेइम
हमें आपकी रचना छापकर
किसी प्रकार की कोई जोखिम नहीं उठानी है
क्योंकि पत्रिका अभी हमें
काफी लंबे समय तक चलानी है
आपने देखा नहीं भाई साहब
जब 'रामसेतु' मुद्दा सदन में गर्माया था
तो विपक्ष वालों ने इस मुद्दे पर
कैसा हंगामा मचाया था
और हम तो सहायता राशि के लिए भी
धार्मिक संस्थाओं का ही मुंह तकते हैं
ऐसी स्थिति में भला धर्म के प्रति
कोई खतरा, हम कैसे उठा सकते हैं
'ढपोरशंख' जी आप कविता की विषय-वस्तु
आधुनिक रूप में अपनाइये
और आप हमें किसी सामाजिक
संगति पर कविता भिजवाइये
जिसमें किसी सरकारी कार्य की प्रशंसा हो
नेताजी के दिल में आम जन के भावों की मंशा हो
मंत्री जी के मन में जन कल्याण का भाव हो
पुलिस के कार्यों में अत्याचार का अभाव हो
सरकारी अस्पतालों में मरीज़ के इलाज की
की गयी हो समुचित व्यवस्था
धर्म के ठेकेदारों की भी जागी हो
धर्म के प्रति पूर्ण आस्था
गर आप हमें ऐसे किसी विषय पर
अपनी कविता भिजवायेंगे
तो हम अवश्य ऐसी रचना पर
सच्चे मन से गौर फरमाएंगे
और आपकी रचना को
स्थान भी अवश्य प्रदान कर पायेंगे
और यथा सम्भव आपको
हम पारिश्रमिक भी भिजवायेंगे
मेरी समझ में आ गई, हरीश तुझे अगर छपना है
तो कविता में झूठी प्रशंसा का भाव लाओ
और देश में खादी के गिरते चरित्र पर
भूल कर भी ऊँगली मत उठाओ
मारकर अपनी आत्मा को
तन,मन को भोग के रस में डुबाओ
सत्य को मत करो उजागर
न असलियत का आइना किसी को दिखाओ

हरीश अग्रवाल 'ढपोरशंख'

Friday, April 24, 2009

ग़ज़ल

जिधर भी देखो फसादों शर है कहीं भी अमनो अमाँ नहीं है
करोड़ों जनता है भूंखी प्यासी मयस्सर उनको मकाँ नहीं है

ये कैसे कैसे सुनहरे सपने दिखा रहे हो युगों से हमको
किसानों मेहनतकशों को देखो कोई भी तो शादमां नहीं है

ये नन्हें बच्चे जो सूखे टुकड़े तलाशते है गली-गली में
ना बाप इनका, ना माँ है इनकी कोई भी अब महरबां नहीं है

न कोई साथी न कोई मोहसिन न कोई मोनिस न कोई हमदम
जिधर भी देखो है जाँ के दुश्मन कोई भी तो महरबां नहीं है

हबीब मेरे रकीब मेरे न जाने क्यों बदगुमाँ हैं मुझसे
बला से हो जाए बदगुमाँ सब है शुक्र वो बदगुमाँ नहीं है

हो कोई ऐसा अगर नज़र में तो मेरे हमदम मुझे बताना
वो वाकई खुशनसीब होगा जो आज कल सर्गारान् नहीं है

'क़मर' से नालां हैं गुन्चाओ गुल है बगवां भी ख़फा-ख़फा सा
है तंग उस पर ज़मीन उस पर ये शुक्र के आसमां नहीं है

मोहम्मद सिद्दीक 'क़मर'

Thursday, April 23, 2009

यादों की सुबह

लो फिर तेरी यादों की सुबह हो गयी
आशाओं की हर कली जवां हो गयी
तेरी यादों की धूप में
मुझे पूरा दिन बिताना है,
आती-जाती हर साँस को
तेरी यादों से सजाना है
दूर तेरे चेहरे पे मेरी नज़र सो गई
लो फिर तेरी यादों की ...................

तन्हाइयों के सिवा और
किसे ये दास्ताँ सुनाएँ
शोर बिखरा है अंधेरों का
कैसे तुम्हें पास बुलाएं ?

हार कर भीड़ में आवाज़ कहीं खो गई
लो फिर तेरी यादों की.......................

लहू के साथ-साथ रंगों में
तेरा दर्द बह रहा है
बिखरे हुए सपनों को देख
वक़्त का आईना हंस रहा है
ढूंढें कहाँ तो मंजिल जो हमसे कहीं खो गई
तो फिर तेरी यादों की..............................

सुधीर खरे 'कमल'

खुशियों का आकाश

असीम खुशियों का आकाश, आपके जीवन में छा जाए
बनी रहे मुस्कान मधुर, कोई इसे कभी चुराने न पाए

उमंग-उत्साह से परिपूर्ण हो प्रतिफल, दुखों की धूप लगने न पाए
सुख-स्वर में बजे मन की वीणा, आशा का दीप कोई बुझने न पाए

पुष्पित-पल्लवित हों आप निरंतर,अभावों में जीवन कटने न पाए
मानवता की आप प्रतिमूर्ति बनें, आत्म-विश्वास डगमगाने न पाए

निज धर्म-कर्म से कभी विमुख न हो, प्रेम-विश्वास भी घटने न पाए
सत्य-ईमान ही प्राणाधार बने, ईर्ष्या-द्वेष कभी मन में आने न पाए

मनोकामना पूर्ण होती रहे,असफलता का मुख कभी दिखने न पाए
फूल ही फूल खिलें सदा राहों में, विपत्ति का कांटा कोई चुभने न पाए

राष्ट्र-समाज को गर्व हो आप पर, संकल्पों की भावभूमि मिटने न पाए
नैतिकता का कभी लोप न हो, मन का संयम कभी बिखरने न पाए

सुधीर खरे 'कमल'

हवाओं का रुख

रुख़ बदलते देर नही लगती हवाओं को
और मौसम भी गद्दारी करने से
बाज़ नहीं आता है फिर भी
ज़रा लोगों को देखिये-हवा को
मुट्ठी में क़ैद करने का ख्वाब
पूरा करने मैं पुरी ज़िन्दगी
गुज़ार देते हैं और नतीजा ये
निकलता है की न तो वो घर के
रहते हैं न घाट के
मौसम की गद्दारी तो जग जाहिर है,
पर आदमी भी इस फन में
मौसम से आज कई गुना
बहुत आगे बढ़ चुका है उसके
इस फन को गिर्गितान की
तरह रंग बदलना कहा जाता है
उम्मीदों के आसमान से लम्बी-चौडी
बहकी-बहकी बातें करती हुई हवाएं
और दूर-दूर तक कभी साफ़ तो
कभी चितकबरा मौसम इन दोनों
ने हमें बहुत कुछ सिखा दिया है
अब इसके बाद भी हम न समझें
तो ये हमारा दुर्भाग्य है

सुधीर खरे 'कमल'

पेट की आग

दो वक़्त की रोटी भी
कभी-कभी इन्सान को
कितना मजबूर कर देती है
कि वह न चाहते हुए भी
परिस्थितियोंवश क्या नहीं कर डालता ?
किन-किन मर्यादाओं को,
सीमाओं को, बंधनों को
नहीं तोड़ डालता , यहाँ तक कि
कभी-कभी वह बाध्य हो जाता है
अपने तन, मन के साथ
आत्मा-ईमान तक को बेचने के लिए
क्योंकि चिता कि आग तो
कुछ समय बाद बुझकर
शांत हो जाती है किंतु
इस पेट कि आग जो सदैव
जलती-धधकती-भभकती
रहती है इसको सिर्फ़ हाँ सिर्फ़
रोटी ही शांत कर सकती है

सुधीर खरे 'कमल'

थकान

तरह-तरह के उतार चढाओं
और संघर्षों के चक्रव्यूहों को
तोड़ता हुआ भी आदमी
बहुत चाहने पर भी कभी
पूरी थकान नहीं मिटा पाता क्योंकि
पुनः आने वाला एक नया सवेरा
फिर से उसे मजबूर
कर देता है वाही सरे उपक्रमों
को करने के लिए !
अंततः
और वह करे भी क्या ?
वह मजबूर है नियतिक्रम
के आगे अपना सिर झुकाने को,
अबाध गति से गतिमान
कल चक्र के साथ 'येन केन प्रकारेण'
साथ निभाने को

सुधीर खरे 'कमल'

Wednesday, April 22, 2009

रजनीगंधा सी देह तुम्हारी

मंद मधुर मुस्कान तुम्हारी, मोहित करती मन को
नयनों की मूक भाषा प्रेम सिखाती है जीवन को

रजनीगंधा की देह तुम्हारी, म्रगनयनी से नयन
केशपाश मेघ बन बरसे , व्याकुल तन आलिंगन को

सुबह की लाली अधरों पे खिले पुष्प सा तेरा यौवन ,
चंद्र किरण के रथ पर बैठ मन तोडे हर एक बंधन को

स्मृतियों के वातायन से रोम-रोम करे पूजा-अर्चन
नूतन मिलन की बेला में, मन-भ्रमर व्याकुल गुंजन को

अनुपम छवि तेरे रूप की, लज्जित हो जाए दरपन
हर साँस मदिरा का वास छेडे आती-जाती पवन को

आएगी न विरह की बेला 'कमल' देता है ये वचन
स्नेहिल सन्निध्य तुम्हारा, दूर करे हर उलझन को

सुधीर खरे 'कमल'

रेत का महल

बड़ी आसानी से सज-संवर जाता है
रेत का महल
सब कुछ जानते बूझते हुए कि ये
ठहरेगा नहीं-धसक जाएगा
फिर भी इसे सजाने-सँवारने में
रात-दिन न जाने कितने लोग
लगे रहते है ?
तरह-तरह की कसमों
और वादों से,
रंग-बिरंगें सपने और यादों से !
ये कब, कहाँ, कैसे बन जाते हैं
कोई नहीं जानता ? और इस
रेत के महल की जिंदगी कितनी
होती है ? इस बात का भी सभी को
अच्छी तरह से पता होता है
फिर भी वह मजबूर है
या यूँ कहा जाए उसकी आदत
पड़ चुकी है कुछ न कुछ इसी
प्रकार के ऊट पटांग के ख्वाब
देखने अथवा रेत के महल
बनाने की

सुधीर खरे 'कमल'

दरार

प्रेम और विश्वास के बीच
जब भी दरार पड़ जाती है
मन-मस्तिष्क की दुनियाँ में
बड़ी उथल-पुथल मच जाती है

क्या किया जाए क्या न किया जाए
कुछ समझ में नहीं आता
जीना दुशवार हो जाता और
स्थिति दुविधापूर्ण हो जाती है

रिश्तों को जोड़ना तो आसन
पर उनको निभाना कठिन,
सीमा के अन्दर न रहने से
हर बात बिगड़ जाती है

अपने पराये तो पराये अपने
बनते चले जाते हैं ,
पर मिटाई नहीं जाती वो तस्वीर,
जो दिल में बस जाती है

सभी कश्तियाँ चाहने पर भी
साहिल पे नहीं लग पातीं,
न हो जिसमें पतवार-माझी
वो मझधार में डूब जाती है

शक का बीज बोकर जो लोग
तमाशा देखते हैं,
वो क्या जाने किसी की जिंदगी
कितनी बोझ बन जाती है
प्रेम और विश्वास के बीच
जब भी दरार पड़ जाती है

सुधीर खरे 'कमल'

Tuesday, April 14, 2009

हे महिमामय

लीलामय तुम कितने रूपों में सज जाते हो !

कभी शरद की धूप गुनगुनी स्नेहिल बनकर
जकड़े-ठिठुरे मन को हंस-हंस सहलाते हो
कभी ग्रीष्म के झंझा, धूल बने अंधड़ बन,
आकुल झुलसे मन को तप-तप देह्काते हो
महाज्योतिर्मय ! तुम कितने निर्मम बन जाते हो

मेघों कर क्रीडा बन उर में घुमड़-घुमड़ कर,
विहवल हो नयनों के जल से घिर आते हो
कभी बसंती मृदु बयार गुदगुदा हृदय को,
मन की कलिका के पराग बन खिल जाते हो
करुणामय ! तुम सचमुच करुणा से भर जाते हो .....

धवल-तरल चंद्रिका, सुकोमल स्वपन सजीली,
हंस-हंस मोती ओस बिन्दु से बिखरते हो
कभी गरजकर तड़प दामिनी से अन्तर में,
विकल प्राण से व्याकुल क्रंदन बन जाते हो
प्रिय पावस के मेघ ! क्रुदद्ध क्यों हो जाते हो ?

धूप-छांह सा अदभुत शाश्वत चक्र तुम्हारा,
और नियति मेरी झुलसूं-ठिठरूं-महकूँ मैं,
निर्विकार खेलूं यह रंगभरी क्रीडाएं,
सहज-सरस-शुचि क्षमता शक्ति योग्यता से लब
क्यों न मुझे क्रीडा के वह गुर सिखलाते हो ...........

रमा सिंह

Sunday, April 12, 2009

तारों को मिला दें हम

झंझा और तूफानों को आमंत्रण भेजो नहीं,
विध्वंशों की लपटों को दीप में संवार दो
गीत गुनगुनाएं प्यार-प्रीत भरे अधरों पै
घृणा और कटुताएं मन की बिसार दो

धुआं-धुंध-घुटन की आँधियों की ऋतु जाए,
शीतल समीर बहे मंद-मंद नेह की
आओ मीत ! नफरतों की बेडियों को तोड़ डालें,
मुक्त करें भावनाएँ अन्तर में स्नेह की

द्वेष का ये ज्वार कभी द्वेष से न शांत होगा,
अमृत की बूंदों से ज़हर मिटा दें हम
झाकों तो अतीत, फूट देती है गुलामी सदा,
तार-तार सभ्यता के तारों को मिला दें हम

जाति-धर्म, प्रान्त-भाषाओँ की ये दीवारें हाय !
प्रेम-मानवीयता को रोंद क्यों खड़ी रहीं
बहुत बड़ा है इनसे मानवीयता का भाव,
मानव की हस्ती से ये रूढियां बड़ी नहीं

होती एक सूत्र में शोभा मोती-माणिकों की,
इन्द्र धनुषी ये रंग देश का सजाईये
मानव का मन ही है, मन्दिर औ मस्जिद भी,
मानवों की दुनिया को मानवी बनाईये

रमा सिंह



भारत माँ रोई

भारत माँ चुप-चुप रोई
शर्मसार-बेज़ार हाय ! अपने में खोई-खोई ............

लोकतंत्र की मर्यादाएं तार-तार शरमाई
निर्वसना सभ्यता सिसकती, विकल विहवल घबराई
चीर हर रहा दुशासन, मदमस्त व्यवस्था सोई ...........

लगे दाव पर जन-गण-मन कंचन के कारागृह में,
मूक-बधिर नीतियाँ सिसकती, तिकड़म के आश्रम में,
माली रोंद रहे बगिया को स्वार्थ-बल्लरी बोई............

कदम-कदम पर आग उगलते दरिंदगी के शोले
विध्वंशों के व्यापारी ने हाट-बाट सब खोले,
भय का सन्नाटा पसरा है, सहमा है सब कोई...........

हंसो की टोली पर गिद्धों के साये मंडराए,
सरगम के स्वर पर बारूदों के बादल घिर आए,
चौराहों पर बिके अस्मिता, बोली बोलो कोई ..............

रमा सिंह




गर कुछ पेड़ लगाए होते

गर कुछ पेड़ लगाए होते
घनी धूप में साये होते

पानी बदल दिया होता तो
कमल न ये मुरझाए होते

वे भी ख़फा नहीं रह पाते
दिल से यदि मुस्काए होते

अंत समय में न पछताते
यदि कुछ पुण्य कमाए होते

'पारस' यदि समझौता करते
सारे जग में छाए होते

डॉ रमेश कटारिया 'पारस'

नयनों के सागर में उतरे

नयनों के सागर में गहरे उतरें आज चलो
बन बसंत की भोर क्षितिज पर उभरें आज चलो
मन की दबी-दबी सी परतें खोलें आज चलो
सखे ! ह्रदय के स्पंदन में बोलें आज चलो

मन की घटा घुमड़कर बरसे
भीग उठे हम तुम
कोमल बिरवा चलो प्रीति का
सींच उठे हम तुम
प्राणों के मृदु स्पर्शों के छेड़े तार चलो
नयनों के सागर में गहरे उतरें आज चलो

भीगे-भीगे नयनों से
नयनों की बात करें
अधरों की स्मित पर,
अंतर की सौगात धरे
मुक्त गगन में पाखी से अब भरें उड़ान चलो
नयनों के सागर में गहरे उतरें आज चलो

मानवता पर घिरी धुंध की
छाया गहराई
पग-पग पर पीड़ित प्राणों में
पीड़ा अकुलाई
उषा की लाली से, जग में भरें उजास चलो
नयनों के सागर में गहरे उतरें आज चलो

अन्तर की सीपी के मोती तोलें आज चलो
मृदु वीणा के सुर और राग टटोलें आज चलो

रमा सिंह

Thursday, April 9, 2009

हरयाली है जंगल-जंगल

हरयाली है जंगल-जंगल
महक रही है कोपल-कोपल

जाने बहारां मेरे दिलबर
आ जा दिल है बेकल-बेकल

रूप है तेरा चंदा-चंदा
तन है तेरा मख़मल-मख़मल

मख़मल जैसा तन ये तेरा
महके जैसे संदल-संदल

हिरनी जैसी आँखे तेरी
होंठ गुलाबी कोमल-कोमल

घुंघरू जैसा लहजा तेरा
बातें तेरी शीतल-शीतल

हंसती हो जब जाने तमन्ना
बजती जैसे पायल-पायल

देख के तेरी जुल्फे अम्बर
घिर आए हैं बादल-बादल

हाय 'कमर' अब दीवाने भी
कहते मुझको पागल-पागल

मोहम्मद सिद्दीक 'कमर'