ढूंढते थे जो भी मुझ को हाँथ में खंजर लिये
हम उन्हीं के हमसफ़र थे साथ में बख्तर लिये
खो गया जोश-ए-जुनूँ में आज दीवाना तेरा
दौड़ता फिरता है अपने हाँथ में पत्थर लिये
होश में आकर जो देखा प्यार से कहने लगा
मैं हिफाज़त के लिये था हाँथ में खंजर लिये
इम्तहान-ए-इश्क़ में क्या-क्या सितम हम ने सहे
अब सर तस्लीम ख़म है सामने दिलवर लिये
दिल में इस 'रम्मन' के अब भी हसरते दीदार है
फिर रहा है अपनी आँखों में हंसी मंज़र लिये
रमन लाल अग्रवाल 'रम्मन'
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बख्तर - लोहे की कड़ियों का बना हुआ
जोश-ए-जुनूँ - दीवानगी
तस्लीम ख़म-हुक्म मानना