Thursday, May 28, 2009

ग़ज़ल

तुम आओ या न आओ तुम ख्वाबों में तो आते हो
रकीबों संग हंसते हो हमारा दिल दुखाते हो 

हमें मालूम है हम ही तुम्हारे दिल में बसते हैं 
न जाने फिर मेरी जाँ क्यों नज़र हम से चुराते हो 

तुम्हें डर है ज़माने का ज़माने से डरो हमदम  
है दरिया आग का कह कर हमें क्यों तुम डराते हो  

ज़माना सब ज़माना है हमारे प्यार का दुश्मन  
सुनो कह दो ज़माने से हमें क्या आज़माते हो  

तुम्ही ने हम से वादा ले लिया था बावफा रहना  
नसीहत कर के हमको खुद नसीहत भूल जाते हो  

जवां चाहत रहेगी उम्र भर करना यकीं "मज़हर" 
जवानी और बुढापा क्या है क्यों ऊँगली उठाते हो  

मज़हर अली "क़ासमी"

Saturday, May 16, 2009

क्योंकि धूप बहुत पड़ती है

क्योंकि धूप बहुत पड़ती है
मीत नहीं सबको मिलता है
इसीलिए हर दोपहरी में 
आंसू ही छाया करता है 
जब जीवन का एकाकी-पन
और नहीं आगे सह पाया  
मन ने कहा प्यार करता हूँ  
तन ने कहा बहुत चल आया  
चलना भी छाया के पीछे  
सत्य रहा जाना अंजना  
और हुई जब शाम अचानक  
तब मैंने जीवन पहचाना  
प्यार नहीं छलता जीवन को  
यह तो प्यार छला करता है  
इसीलिए हर दोपहरी में 
आंसू ही छाया करता है 
जब मन में कोई उलझन हो 
दिन सूना सूना लगता हो 
और काफिलों की गर्दिश में 
छोटा गाँव धुआं लगता हो 
तब अपनी पीडा पखारने को  
अपनी पलकें फैलाना  
और पलक के गिरे नीर से 
तन की तनिक तपन सहलाना  
सिन्धु नहीं भरता है जिसको 
सीकर उसे भरा करता है  
इसीलिए हर दोपहरी में 
आंसू ही छाया करता है

मेघराज सिंह कुशवाहा