Wednesday, March 24, 2010

ग़ज़ल

बदली बदली निगाह लगती है
जिंदगी अब गुनाह लगती है

मेरी आँखों से उसको देखो तो
वो हसीं बेपनाह लगती है

जिसका दिल मेरे ग़म से है ग़मगीं
मेरी उस दिल में चाह लगती है

अब मिरे ग़म की खुद मुझे रुदाद
मेरे दिल की कराह लगती है

इतने ज़ुल्मो-सितम के बाद भी तो
वह मिरी खैरख्वाह लगती है

है नज़र जिसकी सिर्फ मंजिल पर
हर तरफ उसको राह लगती है

धूप ही धूप दूर तक फैली
अब कहीं भी न छाँव लगती है

इतना धोखा दिया है उसने 'सोज़'
अब मुहब्बत गुनाह लगती है

प्रोफेसर राम प्रकाश गोयल 'सोज़'
mobile : 9412287787
रुदाद - कहानी
खैरख्वाह - हितेषी

2 comments:

  1. है नज़र जिसकी सिर्फ मंजिल पर
    हर तरफ उसको राह लगती है

    bahut khoob

    ही धूप दूर तक फैली
    अब कहीं भी न छाँव लगती है

    इस शेर से पहला शब्द धूप गायब है कृपया पोस्ट में सही करें

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