ठोकरें खा के जब संभलती है
ज़िंदगी आईने में ढलती है
पत्थर उस को ही मारे जाते हैं
शाख जो भी ज़्यादा फलती है
ज़िंदगी कामयाब वो है जो
वक़्त के साथ साथ चलती है
आतिशे ग़म ने कर दिया पत्थर
अब ये मूरत कहाँ पिघलती है
पाके सब कुछ कुछ और पाने की
दिल में हसरत सदा मचलती है
चैन की नींद को तो ज़रदारी
रात भर करवटें बदलती है
घर में सब से बुज़ुर्ग हों 'सालिक'
अब कहाँ मेरी बात चलती है
वसी मोहम्मद खान 'सालिक'
मो- ८४००८२५२९०
ज़िंदगी आईने में ढलती है
पत्थर उस को ही मारे जाते हैं
शाख जो भी ज़्यादा फलती है
ज़िंदगी कामयाब वो है जो
वक़्त के साथ साथ चलती है
आतिशे ग़म ने कर दिया पत्थर
अब ये मूरत कहाँ पिघलती है
पाके सब कुछ कुछ और पाने की
दिल में हसरत सदा मचलती है
चैन की नींद को तो ज़रदारी
रात भर करवटें बदलती है
घर में सब से बुज़ुर्ग हों 'सालिक'
अब कहाँ मेरी बात चलती है
वसी मोहम्मद खान 'सालिक'
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