जिस पे तेरा करम हुआ ही नहीं
नक़्शे मंज़िल उसे मिला ही नहीं
ज़ीस्त में जिस को ग़म मिला ही नहीं
दर्दो ग़म से वो आशना ही नहीं
ऐसा ढाया सितम सुनामी ने
सिर्फ लाशों के कुछ बचा ही नहीं
कैसे पायेगा मंज़िले मक़सूद
जिसमें जीने का हौसला ही नहीं
क़ौल ये तो 'अज़ीज़' बरहक़ है
आयना झूठ बोलता ही नहीं
अब्दुल अज़ीज़ खान ' अज़ीज़ '
नक़्शे मंज़िल उसे मिला ही नहीं
ज़ीस्त में जिस को ग़म मिला ही नहीं
दर्दो ग़म से वो आशना ही नहीं
ऐसा ढाया सितम सुनामी ने
सिर्फ लाशों के कुछ बचा ही नहीं
कैसे पायेगा मंज़िले मक़सूद
जिसमें जीने का हौसला ही नहीं
क़ौल ये तो 'अज़ीज़' बरहक़ है
आयना झूठ बोलता ही नहीं
अब्दुल अज़ीज़ खान ' अज़ीज़ '
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