Monday, March 23, 2015

जिस पे तेरा करम हुआ ही नहीं

जिस पे तेरा करम हुआ ही नहीं
नक़्शे मंज़िल उसे मिला ही नहीं

ज़ीस्त में जिस को ग़म मिला ही नहीं
दर्दो ग़म से वो आशना ही नहीं

ऐसा ढाया सितम सुनामी ने
सिर्फ लाशों के कुछ बचा ही नहीं

कैसे पायेगा मंज़िले मक़सूद
जिसमें जीने का हौसला ही नहीं

क़ौल ये तो 'अज़ीज़' बरहक़ है
आयना झूठ बोलता ही नहीं

अब्दुल अज़ीज़ खान ' अज़ीज़ '








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