Wednesday, March 18, 2015

निगाहों से वो कुछ कहे जा रहे हैं

निगाहों से वो कुछ कहे जा रहे हैं
हम उनकी अदा पर मिटे जा रहे हैं

तग़ाफ़ुल की ऐसी हवा चल रही है
चराग़े मुहब्बत बुझे जा रहे हैं

हमारी नज़र से जो छुपते रहोगे
तो फिर बज़्म से हम उठे जा रहे हैं

इलाही यहाँ क्या कोई मैक़दा है
हमारे क़दम क्यों रुके जा रहे हैं

जुनूँ की हदों से भी आगे निकालकर
न जाने किधर हम बढे जा रहे हैं

परिंदे तो ख़ुद ही असीरे सितम हैं
नये जाल फिर क्यों बुने जा रहे हैं

असीरों की रूदाद 'इक़बाल ' सुन कर
नशेमन के तिनके जले जा रहे हैं

इक़बाल बन्ने झांसवी








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