जवानी की देहलीज़ पर
क़दम रख चुकी बेटी को
माँ ने सिखाये उसके कर्तव्य
ठीक वैसे ही
जैसे सिखाया था उनकी माँ ने
पर उन्हें क्या पता था
जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
अपने आसुंओं को
चुपचाप पीना नहीं जानती है
वह उतनी ही सचेत है
अपने अधिकारों को लेकर जानती है
स्वयं अपनी राह बनाना
और उस पर चलने के
मानदंड निर्धारित करना .
आकांक्षा यादव
kk_akanksha@yahoo.com
Tuesday, January 20, 2009
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बहुत सुंदर…आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्लाग जगत में स्वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।
ReplyDeleteबढ़िया कविता है आकांक्षा जी की। सच आज के दौर में लड़कियों के जीने के लिए मानकों में बदलाव अत्यावश्यक है...और मां से इसकी अपेक्षा करना जायज।
ReplyDeleteबहुत बढिया कविता लिखी है।बधाई।
ReplyDeleteHaan...honaa to aisaahee chahiye...par betee sachet ho jay aur uske aaspaaswalen nahee to kya hota hai, iskee kahanee apnee jeevanee mere blogpe likh rahee hun...zaroor padhen is maalika ko aur aapke vichar rakhen!!
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