Saturday, December 26, 2009

ग़ज़ल

मालोज़र और खज़ाना ज़रूरी नहीं
क़समे वादे निभाना ज़रूरी नहीं

सिर पे तेरी मुहब्बत का आकाश हो
सिर पे हो आशियाना ज़रूरी नहीं

तेरी आँखों में रोशन रहें बिजलियाँ
फिर तेरा मुस्कुराना ज़रूरी नहीं

रूह का रूह से सामना हो अगर
रुख़ से पर्दा हटाना ज़रूरी नहीं

मेरे हांथों में गर हाँथ तेरा रहे
साथ आये ज़माना ज़रूरी नहीं

फूल उल्फत के दिल में खिलते रहे
गुलसितां का फ़साना ज़रूरी नहीं

हार बाँहों के गर्दन पर लिपटे रहे
हीरे मोती चमकाना ज़रूरी नहीं

हवा डूबी हो चाहत की संगीत में
होंठ पर हो तराना ज़रूरी नहीं

एक दूजे पे मिटने की हसरत रहे
'पुरनम' को आज़माना ज़रूरी नहीं

प्रभा पांडे 'पुरनम'

ph 0761 2412504

ग़ज़ल

तसल्ली दिल को मिलती है कहाँ फरयाद करने से
खुदा की याद बेहतर है शिकव- ए-बेदाद करने से

है मुस्तकबिल में कुछ उम्मीद तस्किने दिलो-जां अब
हरा ज़ख्मे-जिगर होता है माजी याद करने से

मुसलसल ख्वाहिशों के सिलसिले हरगिज़ न कम होंगे
ज़रूरत कम नहीं होती कुछ इजाद करने से

यक़ीनन आस्मां से उन पे उतरेगा क़हर एक दिन
नहीं डरते गरीबों के जो घर बर्बाद करने से

किसी को ज़ख्म देने से पहले सोच ये लेना
सुकूं तू भी न पायेगा सितम सैय्याद करने से

अगर माँ-बाप की दिल में तेरे इज्ज़त नहीं 'नादाँ'
तेरे घर में तेरी इज्ज़त रही औलाद करने से

मलील अहमद 'नादाँ'

मुस्तक़बिल-पक्का, मुसलसल-बराबर, सैय्याद-शिकारी

Friday, December 25, 2009

ग़ज़ल

वही पत्ते वही कांटे वही डालियाँ मिली
जब अपने घर गया तो फ़क़त गालियाँ मिली

दोस्तों में मैं बड़े आराम से था दोस्त
रिश्तों में हर ओर मुझे जालियां मिली

पैसों की बात आई तो आयोजक मुकर गए
लोगों की सबसे ज़्यादा मुझको तालियाँ मिली

ख़्वाब तो नहीं देखा कल तुमने कोई 'पारस'
हरसू खिले थे फूल और हरयालियाँ मिली

डॉ रमेश कटारिया 'पारस'

ग़ज़ल

ग़म के काले साये तू दिल से उतार दे
वक़्त नहीं संवरता तो उनकी जुल्फें सवांर दे

जिंदगी के दिन तो बहरहाल गुज़र जायेंगे
हंस के गुज़ार तू इसे या रोकर गुज़ार दे

कुछ नहीं होगा नफरतें पालने से दोस्त
दुश्मन भी दोस्त बन जाये उसे इतना प्यार दे

घावों पे नमक डालने वाले हैं कई दोस्त
दे सके तो कोई एक ग़म गुसार दे

तू क़त्ल करके भी उसका साफ़ निकल सकता है
मारना है तुझे तो अपने अहं को मार दे

दोस्ती के नाम पर जो भी दग़ा करे
ऐसे दोस्तों को तू दिल से बिसार दे

जब तक जियो 'पारस' बड़े शान से जियो
ग़म सामने भी आये तो ठोकर से मार दे

डॉ रमेश कटारिया 'पारस'

ग़ज़ल

राज़ ये सबको सरेआम बताया जाये
मैं बुत परस्त हूँ किसी से न छुपाया जाये

आबे ज़म ज़म न सही सागर-ओ-मीना न सही
हम तो हैं रिंद हमें आँखों से पिलाया जाये

जो भी मयख़ाने में आया है तलबगार है वो जाम
भर-भर के उसे खूब पिलाया जाये

खुशियाँ मेहमान हिया दो दिन में चली जायेंगी
ग़म तो अपना है इसे सीने से लगाया जाये

धर्म के नाम पे मज़हब के बहाने से कभी
खून मासूमों का न अब और बहाया जाये

ग़म को सहते रहे हसते रहे जीते भी रहे
राज़ ये दोस्तों को हरगिज़ न बताया जाये

हाल ए दिल हँसते हुए भी तो हो सकता है बयां
क्या ज़रूरी है कि रो-रो के सुनाया जाए

डॉ रमेश कटारिया 'परस'

ग़ज़ल

जिंदगी दांव पर लगाते हैं
दोष तक़दीर का बताते हैं

रोक पाओ तो रोक लो आंसू
हम तुम्हें हाल-ए दिल सुनते हैं

शाम होती है रोज़ ठेके पर
जाम से जाम खन खनाते हैं

जिंदगी रोते-रोते गुज़री है
लोग क्यों कुंडली मिलते हैं

हमारी तिशनगी का हाल मत पूंछो
प्यासे आये थे प्यासे जाते हैं

मेयक़दा उनका ख़ास है ऐसे
वो फ़क़त आँख से पिलाते हैं

दिल को रख दूंगा उनके क़दमों में
देखें कैसे कुचल के जाते हैं

दिल हमारा कांच से भी नाज़ुक है
आप क्यूँ बिजलियाँ गिरते हैं

डॉ रमेश कटारिया 'पारस'

Thursday, December 24, 2009

ग़ज़ल

जब से गया है छोड़के ये दिल उदास है

ऐसा भी लग रहा है के तू आस पास है

तुझ से बिछड़ से आज भी तन्हा नहीं हूँ मैं

खुशबु तेरे बदन की अभी मेरे पास है

तुम क्या गये के रूठ गयी हम से हर ख़ुशी

पैमाने ख़ाली हाँथ में ख़ाली गिलास है

आँखें खुली रहीं मेरी मरने के बाद भी

आँखों को मेरी आपके आने की आस है

आजा तू मेरे प्यार की चादर को ओढ़ कर

दीवाना तेरा तेरे लिए बदहवास है

जिसने भी तुझ को देखा वो तेरा ही हो गया

न जाने तेरे हुस्न में क्या खास बात है

मायूसियाँ 'नियाज़' के चेहरे की देखकर

ये गुल उदास चाँद सितारे उदास है

मोहम्मद नियाज़ महोब्वी