राज़ ये सबको सरेआम बताया जाये
मैं बुत परस्त हूँ किसी से न छुपाया जाये
आबे ज़म ज़म न सही सागर-ओ-मीना न सही
हम तो हैं रिंद हमें आँखों से पिलाया जाये
जो भी मयख़ाने में आया है तलबगार है वो जाम
भर-भर के उसे खूब पिलाया जाये
खुशियाँ मेहमान हिया दो दिन में चली जायेंगी
ग़म तो अपना है इसे सीने से लगाया जाये
धर्म के नाम पे मज़हब के बहाने से कभी
खून मासूमों का न अब और बहाया जाये
ग़म को सहते रहे हसते रहे जीते भी रहे
राज़ ये दोस्तों को हरगिज़ न बताया जाये
हाल ए दिल हँसते हुए भी तो हो सकता है बयां
क्या ज़रूरी है कि रो-रो के सुनाया जाए
डॉ रमेश कटारिया 'परस'
Friday, December 25, 2009
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