जिंदगी दांव पर लगाते हैं
दोष तक़दीर का बताते हैं
रोक पाओ तो रोक लो आंसू
हम तुम्हें हाल-ए दिल सुनते हैं
शाम होती है रोज़ ठेके पर
जाम से जाम खन खनाते हैं
जिंदगी रोते-रोते गुज़री है
लोग क्यों कुंडली मिलते हैं
हमारी तिशनगी का हाल मत पूंछो
प्यासे आये थे प्यासे जाते हैं
मेयक़दा उनका ख़ास है ऐसे
वो फ़क़त आँख से पिलाते हैं
दिल को रख दूंगा उनके क़दमों में
देखें कैसे कुचल के जाते हैं
दिल हमारा कांच से भी नाज़ुक है
आप क्यूँ बिजलियाँ गिरते हैं
डॉ रमेश कटारिया 'पारस'
Friday, December 25, 2009
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