Friday, December 25, 2009

ग़ज़ल

ग़म के काले साये तू दिल से उतार दे
वक़्त नहीं संवरता तो उनकी जुल्फें सवांर दे

जिंदगी के दिन तो बहरहाल गुज़र जायेंगे
हंस के गुज़ार तू इसे या रोकर गुज़ार दे

कुछ नहीं होगा नफरतें पालने से दोस्त
दुश्मन भी दोस्त बन जाये उसे इतना प्यार दे

घावों पे नमक डालने वाले हैं कई दोस्त
दे सके तो कोई एक ग़म गुसार दे

तू क़त्ल करके भी उसका साफ़ निकल सकता है
मारना है तुझे तो अपने अहं को मार दे

दोस्ती के नाम पर जो भी दग़ा करे
ऐसे दोस्तों को तू दिल से बिसार दे

जब तक जियो 'पारस' बड़े शान से जियो
ग़म सामने भी आये तो ठोकर से मार दे

डॉ रमेश कटारिया 'पारस'

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