प्रेम और विश्वास के बीच
जब भी दरार पड़ जाती है
मन-मस्तिष्क की दुनियाँ में
बड़ी उथल-पुथल मच जाती है
रिश्तों को जोड़ना तो आसान
पर उनको निभाना कठिन
सीमा के अन्दर न रहने से
हर बात बिगड़ जाती है
अपने पराए तो पराए अपने
बनते चले जाते हैं
पर मिटाई नहीं जाती वो तस्वीर
जो दिल में बस जाती है
सभी कश्तियाँ चाहने पर भी
साहिल पे नहीं लग पातीं
न हो जिसमें पतवार-मांझी
वो मझधार में डूब जाती है
शक का बीज बोकर जो लोग
तमाशा देखते हैं
वो क्या जाने किसी की जिंदगी
कितनी बोझ बन जाती है
प्रेम और विश्वास के बीच
जब भी दरार पड़ जाती है
सुधीर खरे ' कमल '
Tuesday, February 10, 2009
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