नयनों के सागर में गहरे उतरें आज चलो
बन बसंत की भोर क्षितिज पर उभरें आज चलो
मन की दबी-दबी सी परतें खोलें आज चलो
सखे ! ह्रदय के स्पंदन में बोलें आज चलो
मन की घटा घुमड़कर बरसे
भीग उठे हम तुम
कोमल बिरवा चलो प्रीति का
सींच उठे हम तुम
प्राणों के मृदु स्पर्शों के छेड़े तार चलो
नयनों के सागर में गहरे उतरें आज चलो
भीगे-भीगे नयनों से
नयनों की बात करें
अधरों की स्मित पर,
अंतर की सौगात धरे
मुक्त गगन में पाखी से अब भरें उड़ान चलो
नयनों के सागर में गहरे उतरें आज चलो
मानवता पर घिरी धुंध की
छाया गहराई
पग-पग पर पीड़ित प्राणों में
पीड़ा अकुलाई
उषा की लाली से, जग में भरें उजास चलो
नयनों के सागर में गहरे उतरें आज चलो
अन्तर की सीपी के मोती तोलें आज चलो
मृदु वीणा के सुर और राग टटोलें आज चलो
रमा सिंह
Sunday, April 12, 2009
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