विध्वंशों की लपटों को दीप में संवार दो
गीत गुनगुनाएं प्यार-प्रीत भरे अधरों पै
घृणा और कटुताएं मन की बिसार दो
धुआं-धुंध-घुटन की आँधियों की ऋतु जाए,
शीतल समीर बहे मंद-मंद नेह की
आओ मीत ! नफरतों की बेडियों को तोड़ डालें,
मुक्त करें भावनाएँ अन्तर में स्नेह की
द्वेष का ये ज्वार कभी द्वेष से न शांत होगा,
अमृत की बूंदों से ज़हर मिटा दें हम
झाकों तो अतीत, फूट देती है गुलामी सदा,
तार-तार सभ्यता के तारों को मिला दें हम
जाति-धर्म, प्रान्त-भाषाओँ की ये दीवारें हाय !
प्रेम-मानवीयता को रोंद क्यों खड़ी रहीं
बहुत बड़ा है इनसे मानवीयता का भाव,
मानव की हस्ती से ये रूढियां बड़ी नहीं
होती एक सूत्र में शोभा मोती-माणिकों की,
इन्द्र धनुषी ये रंग देश का सजाईये
मानव का मन ही है, मन्दिर औ मस्जिद भी,
मानवों की दुनिया को मानवी बनाईये
रमा सिंह
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