Friday, April 24, 2009

ग़ज़ल

जिधर भी देखो फसादों शर है कहीं भी अमनो अमाँ नहीं है
करोड़ों जनता है भूंखी प्यासी मयस्सर उनको मकाँ नहीं है

ये कैसे कैसे सुनहरे सपने दिखा रहे हो युगों से हमको
किसानों मेहनतकशों को देखो कोई भी तो शादमां नहीं है

ये नन्हें बच्चे जो सूखे टुकड़े तलाशते है गली-गली में
ना बाप इनका, ना माँ है इनकी कोई भी अब महरबां नहीं है

न कोई साथी न कोई मोहसिन न कोई मोनिस न कोई हमदम
जिधर भी देखो है जाँ के दुश्मन कोई भी तो महरबां नहीं है

हबीब मेरे रकीब मेरे न जाने क्यों बदगुमाँ हैं मुझसे
बला से हो जाए बदगुमाँ सब है शुक्र वो बदगुमाँ नहीं है

हो कोई ऐसा अगर नज़र में तो मेरे हमदम मुझे बताना
वो वाकई खुशनसीब होगा जो आज कल सर्गारान् नहीं है

'क़मर' से नालां हैं गुन्चाओ गुल है बगवां भी ख़फा-ख़फा सा
है तंग उस पर ज़मीन उस पर ये शुक्र के आसमां नहीं है

मोहम्मद सिद्दीक 'क़मर'

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