लो फिर तेरी यादों की सुबह हो गयी
आशाओं की हर कली जवां हो गयी
तेरी यादों की धूप में
मुझे पूरा दिन बिताना है,
आती-जाती हर साँस को
तेरी यादों से सजाना है
दूर तेरे चेहरे पे मेरी नज़र सो गई
लो फिर तेरी यादों की ...................
तन्हाइयों के सिवा और
किसे ये दास्ताँ सुनाएँ
शोर बिखरा है अंधेरों का
कैसे तुम्हें पास बुलाएं ?
हार कर भीड़ में आवाज़ कहीं खो गई
लो फिर तेरी यादों की.......................
लहू के साथ-साथ रंगों में
तेरा दर्द बह रहा है
बिखरे हुए सपनों को देख
वक़्त का आईना हंस रहा है
ढूंढें कहाँ तो मंजिल जो हमसे कहीं खो गई
तो फिर तेरी यादों की..............................
सुधीर खरे 'कमल'
Thursday, April 23, 2009
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