रुख़ बदलते देर नही लगती हवाओं को
और मौसम भी गद्दारी करने से
बाज़ नहीं आता है फिर भी
ज़रा लोगों को देखिये-हवा को
मुट्ठी में क़ैद करने का ख्वाब
पूरा करने मैं पुरी ज़िन्दगी
गुज़ार देते हैं और नतीजा ये
निकलता है की न तो वो घर के
रहते हैं न घाट के
मौसम की गद्दारी तो जग जाहिर है,
पर आदमी भी इस फन में
मौसम से आज कई गुना
बहुत आगे बढ़ चुका है उसके
इस फन को गिर्गितान की
तरह रंग बदलना कहा जाता है
उम्मीदों के आसमान से लम्बी-चौडी
बहकी-बहकी बातें करती हुई हवाएं
और दूर-दूर तक कभी साफ़ तो
कभी चितकबरा मौसम इन दोनों
ने हमें बहुत कुछ सिखा दिया है
अब इसके बाद भी हम न समझें
तो ये हमारा दुर्भाग्य है
सुधीर खरे 'कमल'
Thursday, April 23, 2009
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