Wednesday, April 22, 2009

रजनीगंधा सी देह तुम्हारी

मंद मधुर मुस्कान तुम्हारी, मोहित करती मन को
नयनों की मूक भाषा प्रेम सिखाती है जीवन को

रजनीगंधा की देह तुम्हारी, म्रगनयनी से नयन
केशपाश मेघ बन बरसे , व्याकुल तन आलिंगन को

सुबह की लाली अधरों पे खिले पुष्प सा तेरा यौवन ,
चंद्र किरण के रथ पर बैठ मन तोडे हर एक बंधन को

स्मृतियों के वातायन से रोम-रोम करे पूजा-अर्चन
नूतन मिलन की बेला में, मन-भ्रमर व्याकुल गुंजन को

अनुपम छवि तेरे रूप की, लज्जित हो जाए दरपन
हर साँस मदिरा का वास छेडे आती-जाती पवन को

आएगी न विरह की बेला 'कमल' देता है ये वचन
स्नेहिल सन्निध्य तुम्हारा, दूर करे हर उलझन को

सुधीर खरे 'कमल'

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