Tuesday, April 14, 2009

हे महिमामय

लीलामय तुम कितने रूपों में सज जाते हो !

कभी शरद की धूप गुनगुनी स्नेहिल बनकर
जकड़े-ठिठुरे मन को हंस-हंस सहलाते हो
कभी ग्रीष्म के झंझा, धूल बने अंधड़ बन,
आकुल झुलसे मन को तप-तप देह्काते हो
महाज्योतिर्मय ! तुम कितने निर्मम बन जाते हो

मेघों कर क्रीडा बन उर में घुमड़-घुमड़ कर,
विहवल हो नयनों के जल से घिर आते हो
कभी बसंती मृदु बयार गुदगुदा हृदय को,
मन की कलिका के पराग बन खिल जाते हो
करुणामय ! तुम सचमुच करुणा से भर जाते हो .....

धवल-तरल चंद्रिका, सुकोमल स्वपन सजीली,
हंस-हंस मोती ओस बिन्दु से बिखरते हो
कभी गरजकर तड़प दामिनी से अन्तर में,
विकल प्राण से व्याकुल क्रंदन बन जाते हो
प्रिय पावस के मेघ ! क्रुदद्ध क्यों हो जाते हो ?

धूप-छांह सा अदभुत शाश्वत चक्र तुम्हारा,
और नियति मेरी झुलसूं-ठिठरूं-महकूँ मैं,
निर्विकार खेलूं यह रंगभरी क्रीडाएं,
सहज-सरस-शुचि क्षमता शक्ति योग्यता से लब
क्यों न मुझे क्रीडा के वह गुर सिखलाते हो ...........

रमा सिंह

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