दो वक़्त की रोटी भी
कभी-कभी इन्सान को
कितना मजबूर कर देती है
कि वह न चाहते हुए भी
परिस्थितियोंवश क्या नहीं कर डालता ?
किन-किन मर्यादाओं को,
सीमाओं को, बंधनों को
नहीं तोड़ डालता , यहाँ तक कि
कभी-कभी वह बाध्य हो जाता है
अपने तन, मन के साथ
आत्मा-ईमान तक को बेचने के लिए
क्योंकि चिता कि आग तो
कुछ समय बाद बुझकर
शांत हो जाती है किंतु
इस पेट कि आग जो सदैव
जलती-धधकती-भभकती
रहती है इसको सिर्फ़ हाँ सिर्फ़
रोटी ही शांत कर सकती है
सुधीर खरे 'कमल'
Thursday, April 23, 2009
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