Saturday, April 25, 2009

धार्मिक बंधन

एक स्थानीय पत्रिका में एक रचना
जब हमने छपने हेतु भिजवाई
तो हमारी रचना संपादक जी की
इस खेदात्मक टिप्पणी के साथ वापस आई
की अग्रवाल जी आपकी रचना
महाभारत के पात्रों के प्रतिकूल है
इसलिए हम अभी आपकी रचना
छापने में स्वंम को पा रहे मजबूर हेइम
हमें आपकी रचना छापकर
किसी प्रकार की कोई जोखिम नहीं उठानी है
क्योंकि पत्रिका अभी हमें
काफी लंबे समय तक चलानी है
आपने देखा नहीं भाई साहब
जब 'रामसेतु' मुद्दा सदन में गर्माया था
तो विपक्ष वालों ने इस मुद्दे पर
कैसा हंगामा मचाया था
और हम तो सहायता राशि के लिए भी
धार्मिक संस्थाओं का ही मुंह तकते हैं
ऐसी स्थिति में भला धर्म के प्रति
कोई खतरा, हम कैसे उठा सकते हैं
'ढपोरशंख' जी आप कविता की विषय-वस्तु
आधुनिक रूप में अपनाइये
और आप हमें किसी सामाजिक
संगति पर कविता भिजवाइये
जिसमें किसी सरकारी कार्य की प्रशंसा हो
नेताजी के दिल में आम जन के भावों की मंशा हो
मंत्री जी के मन में जन कल्याण का भाव हो
पुलिस के कार्यों में अत्याचार का अभाव हो
सरकारी अस्पतालों में मरीज़ के इलाज की
की गयी हो समुचित व्यवस्था
धर्म के ठेकेदारों की भी जागी हो
धर्म के प्रति पूर्ण आस्था
गर आप हमें ऐसे किसी विषय पर
अपनी कविता भिजवायेंगे
तो हम अवश्य ऐसी रचना पर
सच्चे मन से गौर फरमाएंगे
और आपकी रचना को
स्थान भी अवश्य प्रदान कर पायेंगे
और यथा सम्भव आपको
हम पारिश्रमिक भी भिजवायेंगे
मेरी समझ में आ गई, हरीश तुझे अगर छपना है
तो कविता में झूठी प्रशंसा का भाव लाओ
और देश में खादी के गिरते चरित्र पर
भूल कर भी ऊँगली मत उठाओ
मारकर अपनी आत्मा को
तन,मन को भोग के रस में डुबाओ
सत्य को मत करो उजागर
न असलियत का आइना किसी को दिखाओ

हरीश अग्रवाल 'ढपोरशंख'

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