Wednesday, April 22, 2009

रेत का महल

बड़ी आसानी से सज-संवर जाता है
रेत का महल
सब कुछ जानते बूझते हुए कि ये
ठहरेगा नहीं-धसक जाएगा
फिर भी इसे सजाने-सँवारने में
रात-दिन न जाने कितने लोग
लगे रहते है ?
तरह-तरह की कसमों
और वादों से,
रंग-बिरंगें सपने और यादों से !
ये कब, कहाँ, कैसे बन जाते हैं
कोई नहीं जानता ? और इस
रेत के महल की जिंदगी कितनी
होती है ? इस बात का भी सभी को
अच्छी तरह से पता होता है
फिर भी वह मजबूर है
या यूँ कहा जाए उसकी आदत
पड़ चुकी है कुछ न कुछ इसी
प्रकार के ऊट पटांग के ख्वाब
देखने अथवा रेत के महल
बनाने की

सुधीर खरे 'कमल'

2 comments: