भारत माँ चुप-चुप रोई
शर्मसार-बेज़ार हाय ! अपने में खोई-खोई ............
लोकतंत्र की मर्यादाएं तार-तार शरमाई
निर्वसना सभ्यता सिसकती, विकल विहवल घबराई
चीर हर रहा दुशासन, मदमस्त व्यवस्था सोई ...........
लगे दाव पर जन-गण-मन कंचन के कारागृह में,
मूक-बधिर नीतियाँ सिसकती, तिकड़म के आश्रम में,
माली रोंद रहे बगिया को स्वार्थ-बल्लरी बोई............
कदम-कदम पर आग उगलते दरिंदगी के शोले
शर्मसार-बेज़ार हाय ! अपने में खोई-खोई ............
लोकतंत्र की मर्यादाएं तार-तार शरमाई
निर्वसना सभ्यता सिसकती, विकल विहवल घबराई
चीर हर रहा दुशासन, मदमस्त व्यवस्था सोई ...........
लगे दाव पर जन-गण-मन कंचन के कारागृह में,
मूक-बधिर नीतियाँ सिसकती, तिकड़म के आश्रम में,
माली रोंद रहे बगिया को स्वार्थ-बल्लरी बोई............
कदम-कदम पर आग उगलते दरिंदगी के शोले
विध्वंशों के व्यापारी ने हाट-बाट सब खोले,
भय का सन्नाटा पसरा है, सहमा है सब कोई...........
हंसो की टोली पर गिद्धों के साये मंडराए,
सरगम के स्वर पर बारूदों के बादल घिर आए,
चौराहों पर बिके अस्मिता, बोली बोलो कोई ..............
रमा सिंह
भय का सन्नाटा पसरा है, सहमा है सब कोई...........
हंसो की टोली पर गिद्धों के साये मंडराए,
सरगम के स्वर पर बारूदों के बादल घिर आए,
चौराहों पर बिके अस्मिता, बोली बोलो कोई ..............
रमा सिंह
भारत माँ चुप-चुप रोई
ReplyDeleteशर्मसार-बेज़ार हाय ! अपने में खोई-खोई ............
बडा ग़मगीन तराना।