Thursday, April 23, 2009

थकान

तरह-तरह के उतार चढाओं
और संघर्षों के चक्रव्यूहों को
तोड़ता हुआ भी आदमी
बहुत चाहने पर भी कभी
पूरी थकान नहीं मिटा पाता क्योंकि
पुनः आने वाला एक नया सवेरा
फिर से उसे मजबूर
कर देता है वाही सरे उपक्रमों
को करने के लिए !
अंततः
और वह करे भी क्या ?
वह मजबूर है नियतिक्रम
के आगे अपना सिर झुकाने को,
अबाध गति से गतिमान
कल चक्र के साथ 'येन केन प्रकारेण'
साथ निभाने को

सुधीर खरे 'कमल'

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